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________________ प्रखावना। ६१. श्रुवज्ञान। वाचकने 'प्रमाणनयैरधिगमः' (१.६) इस सूत्रमें नयोंको प्रमाणसे पृथक रखा है। बाचकने पांच ज्ञानोंके साथ प्रमाणोंका अमेद तो बताया ही है किन्तु नयोंको किस ज्ञानमें समाविष्ट करना इसकी चर्चा नहीं की है । आचार्य कुन्दकुन्दने श्रुतके मेदोंकी चर्चा करते हुए नयोंको मी श्रुतका एक मेद बतलाया है । उन्होंने भुतके भेद इस प्रकार किये हैं- लम्धि, भावना, उपयोग और नये। ___ आचार्यने सम्यग्दर्शनकी व्याख्या करते हुए कहा है कि आप्त-आगम और तस्वकी श्रद्धा सम्यग्दर्शन है। आप्तके लक्षणमें अन्य गुणोंके साथ क्षुधा-सृष्णादिका अभाव भी बताया है। अर्थात् उन्होंने आप्त की व्याख्या दिगम्बर मान्यताके अनुसार की हैं। आगमकी व्याख्यामें उन्होंने वचनको पूर्वापरदोषरहित कहा है उससे उनका तात्पर्य दार्शनिकोंके पूर्वापरविरोधदोषके राहित्यसे है। [३] नयनिरूपण। ६१ व्यवहार और निश्चय । आचार्य कुन्दकुन्दने नयोंके नैगमादि मेदोंका विवरण नहीं किया है। किन्तु आगमिक व्यवहार और निश्चय नयका स्पष्टीकरण किया है और उन दोनों नयोंके आधारसे मोक्षमार्गका और तत्वोंका पृथकरण किया है । आगममें निश्चय और व्यवहारकी जो चर्चा है उसका निर्देश हमने पूर्वमें किया है । निश्चय और व्यवहारकी व्याख्या आचार्यने आमगानुकूल ही की है किन्तु उन नयोंके आधारसे विचारणीय विषयोंकी अधिकता आचार्यके ग्रन्थों में स्पष्ट है । उन विषयोंमें आत्मादि कुछ विषय तो ऐसे हैं जो आगममें भी हैं किन्तु आगमिक वर्णनमें यह नहीं बताया गया कि यह वचन अमुक नयका है । आचार्यके विवेचमके प्रकाशमें यदि आगोंके उन वाक्योंका बोध किया जाय तब यह स्पष्ट हो जाता है कि आगमके वे वाक्य कौनसे नयके आश्रयसे प्रयुक्त हुए हैं । उक्त दो नयों की व्याख्या करते हुए आचार्यने कहा है"पवहारोऽभूदत्यो भूदरयो देसिदो दु सुद्धणयो।" समयसार १३॥ अर्थात् व्यवहार नय अभूतार्थ है और शुद्ध अर्थात् निश्चयनय भूतार्थ है। तात्पर्य इतना ही है कि वस्तुके पारमार्थिक तात्विक शुद्धखरूपका ग्रहण निश्चय नयसे होता है और अशुद्ध अपारमार्थिक या लौकिकखरूपका ग्रहण व्यवहारसे होता है । वस्तुतः छः द्रव्योंमेंसे जीव और पुद्गल इन दो द्रव्योंके विषयमें सांसारिक जीवोंको भ्रम होता है । जीव संसारावस्था में प्रायः पुद्गलसे मिन्न उपलब्ध नहीं होता है अत एव साधारण लोग जीवमें कई ऐसे धर्मोंका अध्यास कर देते हैं जो वस्तुतः उसके नहीं होते। इसी प्रकार पुद्गलके विषयमें भी विपर्यास कर देते हैं । इसी विपर्यास की दृष्टिसे व्यवहारको अभूतार्थप्राही कहा गया है और निश्चयको भूतार्थग्राही । परंतु भाचार्य इस बातको मी मानते ही हैं कि विपर्यास मी निर्मूल नही है । जीव अनादि कालसे मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति इन तीन परिणामोंसे स्पर्ष १.१.। २ पंचा० ४३। ३ नियमसार ५। नियमसार । ५ नियमसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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