SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यवहार और निश्चय। परिणत होता है। इन्ही परिणामोंके कारण यह संसारका सारा विपर्यास है, इसका इन्कार नहीं किया जा सकता । यदि हम संसारका अस्तित्व मानते हैं तो व्यवहारनयके विषयका मी अस्तित्व मानना पडेगा । वस्तुतः निश्चय नय मी तब तक एक खतम नय है जब तक उसका प्रतिपक्षी व्यवहार मौजुद है । यदि व्यवहार नय नहीं तो निश्चय भी नहीं । यदि संसार नहीं तो मोक्ष मी नहीं । संसार-मोक्ष जैसे परस्पर सापेक्ष हैं वैसे ही व्यवहार और निश्चय मी परस्पर सापेक्ष है। आचार्य कुन्दकुन्दने परम तत्वका वर्णन करते हुए इन दोनों नयोंकी सापेक्षताको ध्यानमें रख कर ही कह दिया है कि वस्तुतः तत्त्वका वर्णन न निश्चयसे हो सकता है न व्यवहारसे । क्यों कि ये दोनों नय अमर्यादितको, अवाच्यको, मर्यादित और वाच्य बनाकर वर्णन करते हैं । अत एव वस्तुका परमशुद्ध खरूप तो पक्षातिक्रान्त है । वह न व्यवहारमाश है और म निश्चयमाघ । जैसे जीवको व्यवहारके आश्रयसे बद्ध कहा जाता है और निश्चयके आश्रयसे अबद्ध कहा जाता है। साफ है कि जीवमें अबद्धका व्यवहार मी बद्धकी अपेक्षासे हुआ है। अत एव आचार्षने कह दिया कि वस्तुतः जीव न बद्ध है और न अबद्ध किन्तु पक्षातिक्रान्त है। यही समयसार है, यही परमात्मा है'। व्यवहार नयके निराकरणके लिये निश्चय नयका अवलंबन है किन्तु निश्चयनयावलंबन ही कर्तव्यकी इतिश्री नहीं है । उसके आश्रयसे आत्माके खरूपका बोध करके उसे छोडने पर ही तस्वका साक्षात्कार संभव है। भाचार्यके प्रस्तुत मतके साथ नागार्जुनके निम्न मतकी तुलना करना चाहिए। "शून्यता सर्वष्टीनां प्रोक्ता निस्सरणं जिनैः। येषां तु शून्यतारपिस्तानसाभ्यान वभाषिरे ॥"माध्य० १३.८ । "शून्यमिति न वक्तव्यमशून्य मिति वा भवेत् । उभयं नोभयं चेति प्राप्त्यर्थे तु कथ्यते ॥" माध्य० २२.११ । प्रसंगसे नागार्जुन और आ० कुन्दकुन्दकी एक अन्य बात मी तुलनीय है जिसका निर्देश मी उपयुक्त है । आचार्य कुन्दकुन्दने कहा है "जह णवि सक्कमणजो अणजभासं विणा दुगाहेदूं। तह ववहारेण विणा परमत्थुवदेसणमसकं॥" समयसार। ये ही शब्द नागार्जुनके कथनमें भी हैं "नान्यया भाषया म्लेच्छा शक्यो प्राहयितुं यथा। न लौकिकमृते लोकः शक्यो ग्राहयितुं तथा ॥" माध्य० पू० ३७० । आचार्यने अनेक विषयों की चर्चा उक्त दोनों नयोंके आश्रयसे की है जिनमेंसे कुछ ये हैंझानादि गुण और आत्माका संबंध, आत्मा और देहका संबन्धे, जीव और अध्यवसाय, गुणस्थन समयसार १६ । २ समयसार० तात्पर्य० पू०६७। "कम्मं बदमबद्ध जीवे एवं तु आण णयपक्खें। पक्सातिकतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो॥" समयसार १५२ । "दोषणविणयाण भणियं जाणइ णवरंतु समयपरिबद्धो । जदुणयपक्संगिण्हदि किंचि बिणयपक्सपरिहीणो॥" समय. १५३ । समब..,१९३.से। ५ समयसार ३२से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy