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________________ प्रस्तावना। आदिका संबंध; मोक्षमार्ग ज्ञानादि'; आत्मा; कर्तृत्व; आत्मा और कर्म, क्रिया, भोग; बद्धत्वअबद्धत्व; मोक्षोपयोगी लिंग; बंधविचार; सर्वज्ञत्व; पुद्गलें इत्यादि । ३. आचार्य सिद्धसेन । ६१ सिद्धसेनका समय। सिद्धसेन दिवाकरको 'सन्मति प्रकरण' की प्रस्तावनामें (पृ०४३) पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने विक्रमकी पांचवी शताब्दीके आचार्य माने हैं । उक्त पुस्तकके अंग्रेजी संस्करणमें मैंने सूचित किया था कि धर्मकीर्तिके प्रमाणवार्तिक आदि ग्रन्थके प्रकाशमें सिद्धसेनके समयको शायद परिवर्तित करना पडे, अर्थात् पांचवीके स्थानमें छठी-सातवी शताब्दीमें सिद्धसेनकी स्थिति मानना पडे । किन्तु अभी अभी पंडित सुखलालजीने सिद्धसेनके समयकी पुनः चर्चा की है। उसमें उन्होंमें सिद्ध किया है कि सिद्धसेनको पांचवी शताब्दीका ही विद्वान् मानना चाहिए । उनकी मुख्य दलील है कि पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धि में सिद्धसेनकी द्वात्रिंशिकाका उद्धरण है" । अत एव पांचवीके उत्तरार्धसे छठीके पूर्वार्ध तकमें माने जानेवाले पूज्यपादसे पूर्ववर्ती होनेके कारण सिद्धसेनको विक्रम पांचवीं शताब्दीका ही विद्वान् मानना चाहिए। इस दलीलके रहते अब सिद्धसेनके समयकी उत्तरावधि पांचवी शताब्दीसे आगे नहीं बढ सकती। उन्हें पांचवीं शताव्दीसे अर्वाचीन नहीं माना जा सकता । वस्तुतः सिद्धसेमके समयकी चर्चा के प्रसंगमें न्यायावतारगत कुछ शब्दों और सिद्धान्तोंको लेकर प्रो० जेकोबीने यह सिद्ध करनेकी चेष्टा की थी कि सिद्धसेन धर्मकीर्तिके बाद हुए हैं। प्रो. वैद्यने मी उन्हींका अनुसरण किया । कुछ विद्वानोंने न्यायावतारके नवम श्लोकके लिये कहा कि वह समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डका है अत एव सिद्धसेन समन्तभद्रके बाद दुए इस प्रकार सिद्धसेनके समयके निश्चयमें न्यायावतारने काफी विवाद खडा किया है । अत एव न्यायावतारका विशेष रूपसे तुलनात्मक अध्ययन मैंने प्रस्तुत संस्करणके प्रथम परिशिष्ट किया है । उस परिशिष्टके आधारसे यह निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि सिद्धसेनको धर्मकीर्तिके पहलेका विद्वान् माननेमें कोई समर्थ बाधक प्रमाण नहीं है । रत्नकरण्डके विषयमें अब तो प्रो० हीरालालने यह सिद्ध किया है कि वह समन्तभद्रकृत नहीं, तब उसके आधारसे यह कहना कि, सिद्धसेन समन्तभद्रके बाद हुए, युक्तियुक्त नहीं। अत एव पंडित सुखलालजीके द्वारा निर्णीत विक्रमकी पांचवी शताब्दीमें सिद्धसेनकी स्थिति निर्बाध प्रतीत होती है। समयसार ६ से। २पंचा० १६७ से। नियम ५४ से । दर्शन प्रा० २० । ३ समय० १,१६ इत्यादि नियम ४९। ४ समय०२५, ९० भादि नियम० १८। ५ समय० ३८६ से। ६ समय. १५१। समय० ४४५। ८ प्रवचन २.९७ । ९ नियम० १५८। १० नियम २९ । ११'श्रीसिद्धसेन दिवाकरना समयनो प्रभ' भारतीयविद्या वर्ष ३ पृ० १५२ । १२ सर्वार्थ सिद्धि ७.१३ में सिद्धसेन की तीसरी द्वात्रिंशिकाका १६ वाँ पद्य उद्धृत है। १३ समराइचकहा, प्रस्तावना पू०३। १४ न्यायावतार प्रस्तावना पृ०१०। १५ अनेकान्त वर्ष०८ किरण १-३। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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