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सन्मतितर्क में अनेकान्त स्थापन ।
६२ सिद्धसेन की प्रतिभा ।
आचार्य सिद्धसेनके जीवन और लेखनके सम्बन्ध में 'सन्मतितर्कप्रकरणम्' के समर्थ संपादकोंने पर्याप्त मात्रामें प्रकाश डाला है'। जैनदार्शनिक साहित्यकी एक नई धारा प्रवाहित करनेमें सिद्धसैन सर्व प्रथम है इतना ही नहीं किन्तु जैनसाहित्यके भंडारमें संस्कृतभाषा में काव्यमय तर्कपूर्ण स्तुतिसाहित्यको प्रस्तुत करनेमें भी सिद्धसेन सर्वप्रथम है। पंडित सुखलालजीने उनको प्रतिभामूर्ति कहा है यह अत्युक्ति नहीं । सिद्धसेनका प्राकृत ग्रन्थ सन्मति देखा जाय, या उनकी द्वात्रिंशिकाएँ देखी जाय, पद पद पर सिद्धसेनकी प्रतिभा का वाचकको साक्षात्कार होता है। जैन साहित्यकी जो न्यूनता थी, उसीकी पूर्तिकी ओर उनकी प्रतिभाका प्रयाण हुआ है।
तिचर्वण उन्होंने नहीं किया । टीकाएँ उन्होंने नहीं लिखीं किन्तु समयकी गतिविधिको देखकर जैन आगमिक साहित्यसे ऊपर उठ कर तर्कसंगत अनेकान्तवाद के समर्थन में उन्होंने अपना बल लगाया । फलस्वरूप 'सन्मतितर्क' जैसा शासनप्रभावक प्रन्थ उपलब्ध हुआ ।
६३ सम्मतितर्क में अनेकान्त स्थापन ।
'नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु और दिमागने भारतीय दार्शनिक परंपराको एक नई गति प्रदान की है। नागार्जुनने तत्कालीन बौद्ध और बौद्धेतर सभी दार्शनिकोंके सामने अपने शून्यवादको उपस्थित करके वस्तुको सापेक्ष सिद्ध किया । उनका कहना था कि वस्तु न भावरूप है, न अभावरूप, न भावाभावरूप, और न अनुभयरूप । वस्तुको कैसा मी विशेषण देकर उसका रूप बताया नहीं जा सकता, वस्तु निःखभाव है; यही नागार्जुनका मन्तव्य था । असन और वसुबन्धु इन दोनों भाइओंने वस्तुमात्रको विज्ञानरूप सिद्ध किया और बाह्य जड पदार्थोंका अपलाप किया । वसुबन्धुके शिष्य दिग्नागने मी उनका समर्थन किया और समर्थन करनेके लिये बौद्ध दृष्टिसे नवीन प्रमाणशास्त्रकी भी नींव रखी। इसी कारण से वह बौद्ध न्यायशास्त्रका पिता कहा जाता । उसने प्रमाणशास्त्रके बलपर सभी वस्तुकी क्षणिकताके बौद्ध सिद्धान्तका भी समर्थन किया ।
बौद्ध विद्वानोंके विरुद्धमें भारतीय सभी दार्शनिकोंने अपने अपने पक्षकी सिद्धि करनेके लिये पूरा बल लगाया । नैयायिक वात्स्यायनने नागार्जुन और अन्य दार्शनिकोंका खण्डन करके आत्मादि प्रमेयोंकी भावरूपता और सभी का पार्थक्य सिद्ध किया । मीमांसक शबरने विज्ञानवाद 1 और शून्यवादका निरास किया तथा बेदापौरुषेयता सिद्ध की । वात्स्यायन और शबर दोनोंने aah 'सर्व क्षणिकम्' सिद्धान्त की आलोचना करके आत्मादि पदार्थोंकी नित्यताकी रक्षा की । सांख्योंने भी अपने पक्षकी रक्षाके लिये प्रयत्न किया । इन समीको अकेले दिमागने उत्तर दे करके फिर विज्ञानवादका समर्थन किया । तथा बौद्धसंमत सर्ववस्तुओंकी क्षणिकताका सिद्धान्त स्थिर किया ।'
ईसा की प्रथम शताब्दी से लेकर पांचवी शताब्दी तककी इस दार्शनिकवादोंकी पृष्ठभूमिको यदि ध्यान में रखें तो प्रतीत होगा कि जैन दार्शनिक सिद्धसेनका आविर्भाव यह एक आकस्मिक घटना नहीं किन्तु जैन साहित्यके क्षेत्रमें भी दिग्नागके जैसे एक प्रतिभासंपन्न विद्वान् की आवश्यकताने ही प्रतिभामूर्ति सिद्धसेनको उत्पन्न किया है ।
१' सम्मति प्रकरण' (गुजराती) की प्रस्तावना । उसीका अंग्रेजी-संस्करण-जैन श्रे० कोम्फरन्सद्वारा प्रकाशित । 'प्रतिभामूर्ति हुआ है सिद्धसेन'- भारतीयविद्या तृतीयभाग पृ० ९ ।
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