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________________ प्रस्तावना । १४३ आगमगत अनेकान्तवाद और स्याद्वादका वर्णन पूर्वमें हो चुका है। उससे पता चलता है कि भगवान् महावीरका मानस अनेकान्तवादी था । आचार्येने मी अनेकान्तबादको कैसे विकसित किया यह भी मैंने बताया है। आचार्य सिद्धसेनने जब अनेकान्तवाद और स्याद्वादके प्रकाशमें उपयुक्त दार्शनिकोंके वादविवादोंको देखा तब उनकी प्रतिभाषी स्फूर्ति हुई और उन्होंने अनेकान्तवाद की स्थापनाका श्रेष्ठ अवसर समझकर सम्मतितर्क नामक ग्रन्थ लिखा । प्रबल वादी तो थे ही। इस बातकी साक्षी उनकी वादद्वात्रिंशिकाएँ ( ७ और ८ ) दे रही हैं । अत एव उन्होंने जैन सिद्धान्तोंको तार्किकभूमिका पर लेजा करके एक वादीकी कुशलता से दार्शनिकोंके बीच अनेकान्तवाद की स्थापना की । सिद्धसेनकी विशेषता यह है कि उन्होंने तत्कालीन नाना वादोंको सन्मतितर्क में विभिन्न नयवादों में सन्निविष्ट कर दिया । अद्वैत वादोंको उन्होंने द्रव्यार्थिक नयके संग्रहनयरूप प्रमेद में समाविष्ट किया । क्षणिकवादी बौद्धोंकी दृष्टिको सिद्धसेनने पर्यायनयान्तर्गत जुसूत्रनयानुसारी बताया । सांख्य दृष्टिका समावेश द्रव्यार्थिक नय किया और काणाददर्शनको उभयनयाश्रित सिद्ध किया । उनका तो यहाँ तक कहना है कि संसार में जितने वचन प्रकार हो सकते हैं, जितने दर्शन - नाना मतवाद हो सकते हैं उतने ही नयवाद हैं। उन सभीका समागम ही अनेकान्तवाद है - "जावइया वयणवद्दा तावइया चेव होन्ति णयवाया। जावइया णयवाया ताबइया चेव परसमया ॥ जं काविलं दरिलणं एयं दव्वट्टियस्स वतव्वं । सुद्धो अणतणअस्स उ परिसुद्धो पज्जवविभप्पो ॥ दोहिं वि जयेहिं णीयं सत्थमुलूपण तहवि मिच्छतं । जं सविसप्पाणतणेण अण्णोष्णनिरवेक्ला ॥" सम्मति० ३.४७-४९ । सिद्धसेन ने कहा है कि सभी नयवाद, सभी दर्शन मिथ्या हैं यदि वे एक दूसरेकी परस्पर अपेक्षा न करते हों और अपने मतको ही सर्वथा ठीक समझते हों । संग्रहनयावलंबी सांख्य या पर्यायनयावलम्बी बौद्ध अपनी दृष्टिसे वस्तुको नित्य या अनित्य कहें तब तक वे मिथ्या नहीं किन्तु सांख्य जब यह आग्रह रखे कि वस्तु सर्वथा नित्य ही है और वह किसी भी प्रकार अनित्य हो ही नहीं सकती; या बौद्ध यदि यह कहे कि वस्तु सर्वथा क्षणिक ही है, वह किसी मी प्रकारसे अक्षणिक हो ही नहीं सकती; तब सिद्धसेनका कहना है कि उन दोनोंने अपनी मर्यादाका अतिक्रमण किया है अत एव वे दोनों मिथ्यावादी हैं ( सन्मति १.२८) सांख्यकी दृष्टिसंग्रहावलंबी है, अभेदगामी है अत एव वह वस्तुको नित्य कहे यह स्वाभाविक है, उसकी वही मर्यादा है; और बौद्ध पर्यायानुगामी या भेददृष्टि होनेसे वस्तुको क्षणिक या अनित्य कहे यह भी स्वाभाविक है, उसकी वही मर्यादा है । किन्तु वस्तुका संपूर्ण दर्शन न तो सिर्फ द्रव्यदृष्टिमें पर्यबसित है और न पर्यायदृष्टि में (सन्मति १०.१२,१३ ); अत एव सांख्य या बौद्धको परस्पर मिथ्यावादी कहनेका खातथ्य नहीं । नानावाद या दर्शन अपनी अपनी दृष्टिसे वस्तुतस्त्वका दर्शन करते हैं इसलिये नयवाद कहे जाते हैं । किन्तु वे तो परमतके निराकरणमें भी तत्पर हैं इसलिये मिथ्या हैं ( सन्मति १.२८ ) | द्रव्यार्थिक जय सम्यग् है किन्तु तदवलम्बी सांख्य दर्शन मिथ्या है क्यों कि उसने उस नयका आश्रय लेकर एकान्त नित्य पक्षका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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