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________________ १४५ म्यायावतारमें जैन न्यायशासकी नींव । अवलम्बन लिया। इसी प्रकार पर्यापमयके सम्यक् होते हुए मी यदि बौद्ध उसका आश्रय लेकर एकान्त अमिस्स पक्षको ही मान्य रखे तब वह मिथ्यावाद बन जाता है । इसी लिये सिद्धसेनने कहा है कि जैसे वैडूर्यमणि जब तक पृथक् पृथक् होते हैं, वैडूर्यमणि होनेके कारण कीमती होते हुए भी उनको रमावलीहार नहीं कहा जाता किन्तु वे ही किसी एक सूत्रमें सुव्यवस्थित हो जाते हैं तब रनावली हारकी संज्ञाको प्राप्त करते हैं । इसी प्रकार नयवाद भी जब तक अपने अपने मतका ही समर्थन करते हैं और दूसरोंके निराकरणमें ही तत्पर रहते हैं वे सम्यग्दर्शन नामके योग्य नहीं । किन्तु अनेकान्तवाद जो कि उन नयवादोंके समूहरूप है सम्यग् दर्शन है क्यों कि अनेकान्त वादमें समी नयवादोंको वस्तुदर्शनमें अपना अपना स्थान दिया गया है, वे समी नयवाद एकसूत्रबद्ध हो गये हैं, उनका पारस्परिक विरोध लुप्त हो गया है (सन्मति १.२२-२५), अत एव अनेकान्तवाद वस्तुका संपूर्ण दर्शन होनेसे सम्यग्दर्शन है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सिद्धसेनने अनेक युक्तिओंसे अनेकान्तवादको स्थिर करने की चेष्टा सन्मतितर्कमें की है। ६४ न्यायावतारमें जैन न्यायशासकी नींव । जैसे दिमागने बौद्धसंमत विज्ञानवाद और एकान्त क्षणिकताको सिद्ध करने लिये पूर्वपरंपरामें थोडा बहुत परिवर्तन करके बौद्ध प्रमाणशासको व्यवस्थित रूप दिया । उसी प्रकार सिद्धसेनने मी जैन न्यायशास्त्रकी नींव न्यायावतारकी रचना करके रखी। जैसे दिग्नागने अपनी पूर्वपरंपरामें परिवर्तन भी किया है उसी प्रकार न्यायावतारमें मी सिद्धसेनने पूर्वपरंपराका सर्वथा अनुकरण न करके अपनी खतन बुद्धिप्रतिभासे काम लिया है। न्यायावतारकी तुलनाके परिशिष्ट (नं. १) में मैंने न्यायावतारकी रचनाका आधार क्या है उसका निर्देश, उपलब्ध सामग्रीके आधार पर, यत्र तत्र किया है। उससे इतना तो स्पष्ट है कि सिद्धसेनने जैन दृष्टिकोणको अपने सामने रखते हुए मी लक्षणप्रणयनमें दिमागके प्रन्यों का पर्याप्तमात्रामें उपयोग किया है । और स्वयं सिद्धसेनके लक्षणोंका उपयोग अनुगामी जैनाचार्योंने अत्यधिक मात्रामें किया है यह भी स्पष्ट है। भागमयुग जैनदर्शनके पूर्वोक्त प्रमाण तत्वके विवरणसे (पृ० ५६) स्पष्ट है कि आगममें मुख्यतः चार प्रमाणोंका वर्णन आया है। किन्तु आचार्य उमाखातिने प्रमाणके दो मेद प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे किये और उन्हीं दो में पांचज्ञानोंको विभक्त कर दिया । आचार्य सिद्धसेनने मी प्रमाण तो दो ही रखे-प्रत्यक्ष और परोक्ष । किन्तु उनके प्रमाणनिरूपणमें जैनपरंपरासंमत पांच ज्ञानोंकी मुख्यता नहीं । किन्तु लोकसंमत प्रमाणों की मुख्यता है । उन्होंने प्रत्यक्षकी व्याख्या में लौकिक और लोकोत्तर दोनों प्रत्यक्षोंका समावेश कर दिया है और परोक्षमें अनुमान और आगमका । इस प्रकार सिद्धसेनने आगममें मुख्यतः वर्णित चार प्रमाणोंका नहीं किन्तु सांख्य और प्राचीन बौद्धोंका अनुकरण करके प्रत्यक्ष, अनुमान और आगमका वर्णन किया है। न्यायशास्त्र या प्रमाणशास्त्रमें दार्शनिकोंने प्रमाण, प्रमाता, प्रमेय और प्रमिति इन चार तत्त्वोंके निरूपण को प्राधान्य दिया है । आचार्य सिद्धसेन ही प्रथम जैन दार्शनिक है जिन्होंने विशेष विवेचमके लिये देखो पं० सुखकालजी कृत न्यावावतारविवेचनकी प्रस्तावना । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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