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________________ प्रस्तावना । १३७ सारमें उक्त व्याख्याओंको युक्तिसे मी सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है । उनका कहना है कि दूसरे दार्शनिक इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको प्रत्यक्ष मानते हैं, किन्तु वह प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ! क्यों कि इन्द्रियाँ तो अनात्मरूप होनेसे परद्रव्य हैं अत एव इन्द्रियोंके द्वारा उपलब्ध वस्तुका ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं हो सकता । इन्द्रियजन्य ज्ञानके लिये परोक्ष शब्द ही उपयुक्त है क्यों कि परसे होनेवाले शान ही को तो परोक्ष कहते हैं। ६६ ज्ञप्तिका तात्पर्य । ज्ञानसे अर्थ जाननेका मतलब क्या है ? क्या ज्ञान अर्थरूप हो जाता है यानि ज्ञान और शेयका भेद मिट जाता है ! या जैसा अर्थका आकार होता है वैसा आकार ज्ञानका हो जाता है ! या ज्ञान अर्थमें प्रविष्ट हो जाता है ? या अर्थ ज्ञानमें प्रविष्ट हो जाता है ! या ज्ञान अर्थमें उत्पन्न होता है ! इन प्रश्नोंका उत्तर आचार्यने अपने ढंगसे देनेका प्रयत्न किया है। ___ आचार्यका कहना है कि ज्ञानी ज्ञानखभाव है और अर्थ ज्ञेयखभाव । अत एव भिन्न खभाव ये दोनों स्वतन्त्र हैं एककी वृत्ति दूसरेमें नहीं है। ऐसा कह करके वस्तुतः आचार्यने यह बताया है कि संसारमें मात्र विज्ञानाद्वैत नहीं, बाह्यार्थ भी हैं। उन्होंने दृष्टांत दिया है कि जैसे चक्षु अपनेमें रूपका प्रवेश न होने पर भी रूपको जानती है वैसे ही ज्ञान बाह्याओंको विषय करता है। दोनोंमें विषयविषयीभावरूप संबंधको छोड कर और कोई संबंध नहीं। 'अोंमें ज्ञान है' इसका तात्पर्य बतलाते हुए आचार्यने इन्द्रनील मणिका दृष्टांत दिया है और कहा है कि जैसे दूधके वर्तनमें रखा हुआ इन्द्रनील मणि अपनी दीप्तिसे दूधके रूपका अमिभव करके उसमें रहता है वैसे ज्ञान भी अर्थोंमें है । तात्पर्य यह है कि दूधगत मणि खयं द्रव्यतः संपूर्ण दूधमें व्याप्त नहीं है फिर भी उसकी दीप्तिके कारण समस्त दूध नीलवर्णका दिखाई देता है उसी प्रकार ज्ञान संपूर्ण अर्थमें द्रव्यतः व्याप्त नहीं होता है तथापि विचित्र शक्तिके कारण अर्थको जान लेता है इसी लिये अर्थमें ज्ञान है ऐसा कहा जाता है। इसी प्रकार, यदि अर्थमें ज्ञान है तो ज्ञानमें भी अर्थ है यह भी मानना उचित है । क्यों कि यदि ज्ञानमें अर्थ नहीं तो ज्ञान किसका होगा ! इस प्रकार बान और अर्थका परस्परमें प्रवेश न होते हुए भी विषयविषयीभावके कारण 'ज्ञानमें अर्थ' और 'अर्थमें ज्ञान' इस व्यवहारकी उपपत्ति आचार्यने बतलाई है। ६७ ज्ञान-दर्शन योगपय । वाचककी तरह आ० कुन्दकुन्दने भी केवलीके ज्ञान और दर्शनका योगपध माना है। विशेषता यह है कि आचार्यने यौगपद्यके समर्थनमें दृष्टांत दिया है कि जैसे सूर्यके प्रकाश और ताप युगपद् होते हैं वैसे ही केवलीके ज्ञान और दर्शनका योगपथ है। "जुगवं वहाणाणं केवलणाणिस्स देसणं तहा। दिणयर पयासतापं जह बट्टा तह मुणेयव्वं ॥" नियमसार १५९ । ६८ सर्वज्ञका ज्ञान । आचार्य कुन्दकुन्दने अपनी अभेद दृष्टिके अनुरूप निश्चय दृष्टिसे सर्वज्ञ की नई व्याख्या २ प्रवचन.१.२८।३प्रवचन.१.२०,२९. प्रवचन.१.१०. प्रवचनसार ५७,५८। ५ वही ३. न्या. प्रस्तावना १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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