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________________ १३६ प्रत्यक्ष-रोक्ष। साप नहीं जानता वसके ज्ञानको परोक्ष कहा जाता है। अत एव यदि एकान्त निक्षयमयका आग्रह रखा जाय तब केवलज्ञानीको प्रत्यक्ष नहीं किन्तु परोक्ष ज्ञान होता है यह मानना पड़ेगा । (१६६-१६७) प्रश्न-और यदि व्यवहारनयका ही भाग्रह रख कर ऐसा कहा जाय कि केवलज्ञानी लोकाछोकको तो जानता है किन्तु खद्रव्य आत्माको नहीं जानता तब क्या दोष होगा ! (१९८) उत्तर-झान ही तो जीवका खरूप है । अत एव परद्रव्यको जाननेवाला ज्ञान सदस्य आत्माको ग जाने यह कैसे संभव है। और यदि शान खद्रव्य वात्माको नहीं जानता है ऐसा थामह हो तब यह मानना पडेगा कि ज्ञान जीवखरूप नहीं किन्तु उससे मिल है। क्तः देखा जाय तो ज्ञान ही आत्मा है और आत्मा ही ज्ञान है अत एव व्यवहार और निचय दोनोंके समन्वयसे यही कहना.उचित है कि ज्ञान खपरप्रकाशक है और दर्शन भी । (१६९-१७०) पापकने सम्पन्धानका अर्थ किया है बन्यभिचारि, प्रशस्त और संगत । किन्तु जाचार्य कुन्दकुन्दने सम्यवानकी जो व्याख्या की है उसमें दार्शनिकप्रसिद्ध समारोपका व्यवच्छेद अभिप्रेत है। उन्होंने कहा है "संसविनोदविमाविषणि होवि सन्माणं " नियमसार ११॥ मर्यात संशय, विमोह और विभमसे वर्जित ज्ञान सम्पवान है। एक दूसरी बात मी पान देने पोप है। कासकर बोलावि कार्यानिकोंने सम्पहानके प्रसंगमें हेय और उपादेय शब्दका प्रयोग किया है। पाचार्य कुन्दकुन्द मी हेमोपादेव तात्यों के बाषिग्रसको सम्यग्वान कहते हैं। समाधान और विभावशाल । अचकामे पूर्णपरंपरा के अनुसार मति, भुत, अवधि और प्रवःपर्याय हानोको पायोपशामिक और केवलको क्षायिक ज्ञान का है। किन्तु आचार्य कुन्दकुन्दके दर्शन की विशेषता यह है कि वे सर्वगम्य परिभाषाका उपयोग करते हैं । अत एव उन्होंने क्षायोपशमिक शानोंके लिये लिमाव ज्ञान और क्षायिक ज्ञानने लिये खभावशान इन शब्दोंका प्रयोग किया है। उनकी व्याख्या है कि कर्मोपाधिवर्जित जो पर्याय हों वे खाभाविक पर्याय हैं और कर्मोपाधिक जो पर्याय हो वे वैमाषिक पर्याय है। इस व्याख्याके अनुसार शुद्ध लामाका बानोपयोग समावज्ञान है और शुद्ध पात्माका ज्ञानोपयोग विभावज्ञान है। ६५ प्रत्यक्ष परोक्ष। आचार्य कुन्दकुन्दने वाचककी. तरह प्राचीन भागमोंकी - व्यवस्थाके अनुसार ही हानाम प्रसक्षक-परोक्षस्वकी क्यवस्था की है । पूर्वोक खपरप्रकाशकी पके प्रसंगमें प्रत्यक्ष-परोक्षजानकी जो व्याख्या दी गई है वही प्रवचनसार (१.१०,४१, ५४-५०) में भी है किन्तु प्रका.,"अधिगमभावो णाणं हेयोपादेयवाणं " नियमसार ५३ । सुपादु५ । नियमसार १८ । २लियमसार २।३विस्मसार ५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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