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प्रस्तावना ।
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अभिप्राय है कि संसारमें ब्रह्मातिरिक्त कुछ नहीं है अत एव सभी प्रतिभासोंमें ब्रह्म ही प्रतिभासित होता है ।
इन दोनों मतोंके समन्वयकी दृष्टिसे आत्माको ही जानता है बाझ पदार्थोंको और अद्वैतवादका अन्तर बहुत कम कर दिया है ।
आचार्यने कह दिया कि निश्चयदृष्टिसे केवलज्ञानी नहीं'। ऐसा कह करके तो आचार्यने जैन दर्शन दिया है और जैन दर्शनको अद्वैतवादके निकट रख
आ० कुन्दकुन्दकृत सर्वज्ञकी उक्त व्याख्या अपूर्व है और उन्हींके कुछ अनुयायिओं तक सीमित रही है। दिगम्बर जैन दार्शनिक अकलंकादिने भी इसे छोड ही दिया है ।
१२ ज्ञानकी खपरप्रकाशकता ।
दार्शनिकोंमें यह एक विवादका विषय रहा है कि ज्ञानको स्वप्रकाशक, परप्रकाशक या खपरप्रकाशक माना जाय । वाचकने इस चर्चाको ज्ञानके विवेचनमें छेडा ही नहीं है । संभवतः आचार्य कुन्दकुन्द ही प्रथम जैन आचार्य हैं जिन्होंने ज्ञानको खपरप्रकाशक मान कर इस चर्चाका सूत्रपात जैनदर्शनमें किया । आ० कुन्दकुन्दके बादके सभी आचार्योंने आचार्यके इस मन्तव्यको एकखरसे माना है।
आचार्यकी इस का सार नीचे दिया जाता है जिससे उनकी दलीलोंका क्रम ध्यानमें आ जायगा – ( नियमसार - १६० - १७० ) ।
प्रश्न - यदि ज्ञानको परद्रव्यप्रकाशक, दर्शनको आत्माका - खद्रव्यका (जीवका ) प्रकाशक और आत्माको खपरप्रकाशक माना जाय तब क्या दोष है ? (१६०)
उत्तर - यही दोष है कि ऐसा माननेपर ज्ञान और दर्शनका अत्यन्त वैलक्षण्य होनेसे दोनोंको अस्मन्त भिन्न मानना पडेगा । क्योंकि ज्ञान तो परद्रव्यको जानता है, दर्शन नहीं । ( १६१ ) अत एव
दूसरी आपत्ति यह है कि खपरप्रकाशक होनेसे आत्मा तो परका मी प्रकाशक वह दर्शनसे जो कि परप्रकाशकं नहीं, मिस्र ही सिद्ध होगा । (१६२ )
अत एव मानना यह चाहिए कि ज्ञान व्यवहार नयसे परप्रकाशक हैं और दर्शन मी । आत्मा मी व्यवहार नयसे ही परप्रकाशक है और दर्शन भी । (१६३ )
किन्तु निश्चयनयकी अपेक्षासे ज्ञान स्वप्रकाशक है, और दर्शन मी । तथा आत्मा स्वप्रकाशक है और दर्शन भी है। ( १६४ )
प्रश्न- यदि निश्चयनयका ही स्वीकार किया जाय और कहा जाय कि केवलज्ञानी आत्मस्वरूपको ही जानता है लोकालोकको नहीं तब क्या दोष है ? (१६५)
उत्तर - जो मूर्त और अमूर्तको, जीब और अजीवको; स्व और समीको जानता है उसके ज्ञानको अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष कहा जाता है। और जो पूर्वोक्त सकलद्रव्योंको उनके नाना पर्यायोंके
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१ "जाणादि रस्सदि सम्यं वबहारणयेण केवली भगवं ।
केषकाणी जाणदि पस्सदि नियमेण अप्पानं ॥" नियमसार १५८
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