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________________ १३४ अद्वैतडि । "वो जो वेदासोहं तु । पण तो जो दा सो महं तु विच्छयो । पचाप चैतव्यो जो जादा सो भहं तु विच्छयो । अवसेसा जे भाषा से भज्जा पदेति णादग्वा ॥" समयसार ३२५-२७ । आचार्यके इस वर्णन में आत्माके द्रव और ज्ञातृत्वकी जो बात कही गई हैं वह सांख्य संगत पुरुषत्वकी याद दिलाती है'। [२] प्रमाणचर्चा । प्रास्ताविक । आचार्य कुन्दकुन्द अपने प्रन्थोंमें संतचभावसे प्रमाणकी चर्चा तो नहीं की है। और न उमासाविकी तरह शब्दतः पांच ज्ञानोंको प्रमाणसंज्ञा ही दी है। फिर भी ज्ञानोंका जो प्रासंगिक वर्णन है वह दार्शनिककी प्रमाणचर्चासे प्रभावित है ही अत एव ज्ञानचर्चाको ही प्रमाणचर्चा मान कर प्रस्तुत वर्णन किया जाता है। इतना तो किसीसे छिपा नहीं रहता कि वा० उमा जातिकी ज्ञान चर्चासे आ० कुन्दकुन्दकी ज्ञान चर्चा में दार्शनिकविकासकी मात्रा अधिक है। यह बात आगेकी चर्चा स्प हो सकेगी । ११ अद्वैत । आचार्य कुन्दकुन्दका श्रेष्ठ प्रन्थ समयसार है। उसमें उन्होंने तत्वोंका विवेचन नैश्वविक डिका अवलम्बन लेकर किया है। खास उद्देश्य तो है आत्माके निरुपाधिकं शुद्धखरूपका प्रतिपादन किन्तु उसीके लिये अन्यतस्योंका भी पारमार्थिकरूप बतानेका आचार्यने प्रयत्न किया है। आत्माके शुद्धसरूपका वर्णन करते हुए आचार्यने कहा है कि व्यवहार दृष्टिके आश्रयसे यद्यपि आत्मा और उसके ज्ञानादि गुणोंमें तथा ज्ञानादि गुणोंमें पारस्परिक, मेदका प्रतिपादन किया जाता है फिर भी निश्चय दृष्टिसे इतनाही कहना पर्याप्त है कि जो ज्ञाता है वही आत्मा है या आत्मा शायक अम्य कुछ नहीं। इस प्रकार आचार्य की अमेदगामिनी दृष्टिने आत्माके सभी गुणोंका अमेद ज्ञानगुणमें कर दिया है और अन्यत्र स्पष्टतया समर्थन भी किया है कि संपूर्णज्ञान ही ऐकान्तिक सुख है'। इतना ही नहीं किन्तु द्रव्य और गुणमें अर्थात् ज्ञान और ज्ञानीमें भी कोई भेद नहीं है ऐसा प्रतिपादन किया है। उनका कहना है कि आत्मा कर्ता हो, ज्ञान करण हो यह बात भी नहीं किन्तु "जो जानदि सो णाणं ण हवदि णाणेण जाणगो मादा ।" प्रवचन० १.३५ । उन्होंने आत्माको ही उपनिषद्की भाषामें सर्वस्व बताया है और उसीका अवलम्बन मुक्ति है ऐसा प्रतिपादन किया है। आ० कुन्दकुन्दकी अमेटिको इटनेसे भी संतोष नहीं हुआ। उनके सामने विज्ञानाद्वैत तथा आत्माद्वैतका आदर्श भी था । विज्ञानाद्वैतवादिओंका कहना है कि ज्ञानमें ज्ञानातिरिक्त वो पदार्थोंका प्रतिभास नहीं होता का ही प्रतिभास होता है। ब्रह्माद्वैत का भी यही Jain Education International १ सोचका १९,१६ । २ समयसार ६,७ । ३ प्रवचन० १.५९६,६० ४ समयसार १०, ११, ४३३ पंचा० ४०,४९ देवो मकावना पृ० १११,१२२ । ५ समयसार १६-११ | नियमसार ९५-१०० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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