SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ योग बौद्ध मोह राग प्रस्तावना। १३३ नीचे दोषोंका तुलनात्मक कोष्ठक दिया जाता है । जैन नैयायिक सांख्य मोहनीय दोष गुण विपर्यय अकुशलहेतु १दर्शन मोह मोह तमोगुण तमस् । अविद्या मोह अस्मिता २ चारित्र मोह माया। सत्वगुण महामोह राग लोभ राग क्रोध मान) द्वेष रजोगुण तामित्र द्वेष अन्धतामिन अभिनिवेश आचार्य कुन्दकुन्दने जैन परिभाषाके अनुसार संसारवर्धक दोषोंका वर्णन किया तो है। किन्तु अधिकतर दोषवर्णन सर्वसुगमताकी दृष्टिसे किया है। यही कारण है कि उनके प्रन्थोंमें राग, द्वेष और मोह इन तीन मौलिक दोषोंका बार बार जिक्र आता है और मुक्तिके लिये इन्ही दोषोंको दूर करनेके लिये भार दिया गया है। ६१७ मेदज्ञान। समी भास्तिके दर्शनोंके अनुसार खास कर अनात्मसे आत्मांका विवेक करना या मैदान करना यही सम्यग्ज्ञान है, अमोह है । बौद्धोंने सत्कायदृष्टिका निवारण करके मददृष्टिके त्यागका जो उपदेश दिया है उसमें मी रूप, विज्ञान आदिमें आस्म बुद्धिके व्यागकी ओर ही लक्ष्य दिया गया है। आचार्य कुन्दकुन्दने मी अपने प्रन्थोंमें भेदज्ञान करानेका प्रयन किया है। वे मी कहते हैं कि आस्मा मार्गणास्थान गुणस्थान, जीवस्थान, नारक, तिर्यश्श, मनुष्य, और देव, नहीं है; वह बाल, बद्ध, और तरुण नहीं है; वह राग द्वेष, मोह नहीं है, क्रोध, मान, माया और लोभ नहीं है, वह कर्म, नोकर्म नहीं है, उसमें वर्णादि नहीं है इत्यादि मेदाम्यास करना चाहिए'। शुद्धामाका यह मेदाम्यास जैनागमोंमें भी मौजुद है ही। उसे ही पल्लवित करके आचार्यने शुद्धामखरूपका वर्णन किया है। तत्त्वाभ्यास होने पर पुरुषको होनेवाले विशुद्ध ज्ञानका वर्णन सांख्योंने किया है कि "एवं तत्वाभ्यासानामि म मे नादमित्यपरिशेषम् । मविपर्ययादिशुद्धं केवलमुत्पद्यते बानम् ॥" सांस्यका०६४। इसी प्रकार वाचार्य कुन्दकुन्दने मी आत्मा और अनात्मा, बंध और मोक्षका वर्णन करके साधकको उपदेश दिया है कि आत्मा और बन्ध दोनोंके खभावको जानकर जो बन्धनमें नहीं रमण करना वह मुक्त हो जाता है । बद्ध आत्मा मी प्रज्ञाके सहारे आरमा और अमात्माका भेद जान लेता है। उन्होंने कहा है समसार ९५,११,११,१८५it पंचा. ७, इत्यादि नियमसार । प्रवचन १.69,661 पंचा. १३५,११,१५९,१५,१५६। समयसार ११५,१८९,१९१,२००,२०१,५०, १.१ .नियमसार ५०. इखादि। लिवमसार 10-1 4 समयसार २९,२५-1. १०- प्रवचन.१.१५। समसार । ५पही ७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy