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दोषवर्णन।
बौद्धदर्शनका प्रतीत्यसमुत्पाद प्रसिद्ध ही है उसमें मी संसारचक्रके मूलमें अविया ही है। उसी अविषाके निरोधसे संसारचक्र रुक जाता है । सभी दोषोंका संग्रह बौद्धोंने मी राग, द्वेष और मोहमें किया है। बौद्धोंने मी राग द्वेषके मूलमें मोह ही को माना है। यही अविधा है।
जैन आगमों में दोषवर्णन दो प्रकारसे हुआ है । एक तो शास्त्रीय प्रकार है जो जैन कर्मशास्त्रकी विवेचनाके अनुकूल है। और दूसरा प्रकार लोकादर द्वारा अन्य तैर्थिकोंमें प्रचलित ऐसे दोष वर्णनका अनुसरण करता है। __ कर्मशास्त्रीय परंपराके अनुसार कषाय और योग येही दो बंध हेतु हैं और उसीका विस्तार करके कमी कमी मिथ्यात्व अविरति कषाय और योग ये चार और कमी कमी इनमें प्रमाद मिलाकर पांच हेतु बताये जाते हैं' कषायरहित योग बन्धका कारण होता नहीं है इसी लिये वस्तुतः कषाय ही बन्धका कारण है इसका स्पष्ट शब्दोंमें वाचकने इस प्रकार निरूपण किया है
"सकवायत्वात् जीवः कर्मणो योग्दान पुगलान् आवत्ते। सबन्धः। तस्वार्ष० ८.२,३ ।
उक्त शास्त्रीय निरूपणप्रकारके अलावा तैर्थिकसमते मतको मी जैन आगमों में स्वीकृत किया है। उसके अनुसार राग, द्वेष और मोह ये तीन संसारके कारणरूपसे जैन आगोंमें बताये गये हैं और उनके त्यागका प्रतिपादन किया गया है। जैन संमत कषायके चार प्रकारोंको राग और द्वेषमें समन्वित करके यह भी कहा गया है कि राग और द्वेष ये दो ही दोष है। दूसरे दार्शनिकोंकी तरह यह मी स्वीकृत किया है कि राग और द्वेषके भी मूलमें मोह है:"रागो पदोसोविय कम्मदीयं कम्मं च मोहप्पमयं वयन्ति।" उत्तरा० ३२.७ ।
जैन कर्मशासके अनुसार मोहनीय कर्मके दो भेद हैं। दर्शनमोह और चारित्रमोह । दूसरे दार्शनिकोंने जिसे अविषा, अज्ञान, तमस् , मोह या मिथ्यात्व : कहा है वही जैमसंमत दर्शनमोड है । और दूसरोंके राग और द्वेषका अन्तर्भाव जैनसंमत चारित्रमोहमें है। जैनसमल हानावरणीय कर्मसे जन्य अज्ञानमें और दर्शनान्तरसंमत अविषा मोह या मिथ्याज्ञानमें अत्यन्त वैलक्षण्य है इसका ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि अविधासे उनका तात्पर्य है जीवको सिपथगामी करनेवाला मिथ्यात्व या मोह किन्तु ज्ञानावरणीयजन्य महानमें शानका अभावमात्र विवक्षित है। अर्थात् दर्शनान्तरीय अविद्या कदाग्रहका कारण होती है अनात्ममें आरमाके अभ्यासका कारण बनती है जब कि जैनसंमत उक्त अमान जाननेकी अशक्तिको सूचित करता है। एक-अविद्या के कारण संसार बढता ही है जबकि दूसरा-अहान संसारको बढाता ही है ऐसा नियम नहीं है।
पुदवचन ३००।२ववचन पृ. २१ । अमिधम्म० १.५। प्रवचन लि...। सस्वासूत्र (पं० सुखलालजी) । ५ माध्ययम २१.९।२३.१।२८.२० । १९.७।। १२.२,९। "दोहिं ठाणेहिं पापकम्मा पंधति । जहा- रागेण बोखेण परागे दुविी पणते
हा मावा बोमे । दोसे"कोहे-माणे "खा.२.२०१। प्रजापनापर ।
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