________________
२७६
टिप्पणानि । [पृ० ११२. पं० १७वस्तुतः जिन गवान्की पूजा उनको प्रसन्न करनेके लिये नहीं की जाती किन्तु अपने चित्तकी प्रसन्नताक लियेही की जाती है क्योंकि धर्म और अधर्म दूसरोंकी- प्रसन्नता या कोपादिके पर निर्भर नहीं किन्तु अपने भावकी शुभाशुभताके ऊपर निर्भर हैं । अतएव वीतराग की पूजा निष्फल न होनेसे करणीय है । विशेषा० गा० ३२२८ से
पृ० ११२. पं० १७. 'पूर्वापरव्याघातः' दूसरोंके शास्त्रवचनोंमें परस्पर विरोध किस प्रकारका है उसका प्रदर्शन धर्म की र्ति ने निम्न कारिकामें किया है
"विरोधोद्भावनप्राया परीक्षाप्यत्र तद्यथा।
अधर्ममूलं रागादि स्नानं चाधर्मनाशनम् ॥" प्रमाणवा० ४. १०७। इसकी व्याख्यामें प्रज्ञा करने जिन दो श्लोकोंको उद्धृत किया है शान्त्या चार्य ने भी उन्हींको प्रस्तुतमें उद्धृत किया है-प्रमाणवा० अलं० लि. पृ० ६४३ ।
तुलना-न्यायकु० पृ० ६३४ । स्याद्वादमं० का०६।।
पृ० ११२. पं० २९. 'विधि' यह कारिका न य चक्र की है-देखो- नयचक्र लिखित पृ०६।
पृ० ११३. पं० १. 'सत्यत्वम्' बुद्ध को अर्थात् बुद्ध वचनको प्रमाण माननेमें धर्म कीर्ति ने हेतु दिया है कि भगवान् बुद्धने अपने दोषोंके क्षयका जो मार्ग प्रत्यक्ष किया था उसीका उपदेश दूसरोंको किया था। उनकी तो प्रत्येक प्रवृत्ति दूसरोंके हितकी दृष्टिसे होती थी, वे ज्ञानी थे, कृपावन्त थे; वे निष्प्रयोजन झूठ क्यों बोलते- अतएव भगवान् प्रमाणभूत हैं
"तायः स्वदृष्टमार्गोक्तिः वैफल्याक्तिनानृतम् ।
दयालुत्वात् परार्थे च सर्वोरम्भाभियोगतः॥" प्रमाणवा० १.१४७,८।
"दयया श्रेय आचष्टे शानात् सत्यं ससाधनम् ।” वही १.२८४। इतनाही नहीं किन्तु उनके उपदेशमें विसंवाद भी नहीं इसलिये भी वे प्रमाण हैं । अर्थात् बुद्धने वस्तुका स्वरूप जो बताया कि सब कुछ क्षणिक होनेसे दुःखरूप हैं और दुःखरूप होनेसे अनात्म है- उसमें कोई बाधा नहीं यह भी बुद्धके प्रामाण्यमें हेतु है-"उपदेशतथाभावः" वही १. २८५।
निष्कर्ष यह है कि बौद्धों के मतसे तत्त्वका खरूप अनित्य, दुःख और अनात्म इन तीन शब्दों में कहा जाता है और वही सत्य है । इसके विपरीत मल्ल वा दी का कहना है कि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीन शब्दोंमें ही वस्तुका सत्यस्वरूप कहा गया है अतएव तदुपदेष्टा भगवान् ही प्रमाण है और अन्य अप्रमाण । पृ० ११३. पं० ११. 'दब्वडिओ कारिका का पूर्वार्ध इस प्रकार है
"तित्थवरवयणसंगह-विसेसपत्थारमूलवागरणी।" व्याख्या-"तरन्ति संसायर्णवं येन तत् तीर्थ-द्वादशाकं तवाधारो वा सहा-तत् कुर्वन्ति उत्पद्यमानमुत्पादयन्ति तत्वाभाव्यात् तीर्थकरनामकर्मोदयावेति तीर्थकराणां वचनम्-आचारादि, अर्थतस्तस्य तदुपदिष्टत्वात्-तस्य संग्रहविशेषौ-द्रव्यपर्यायौ... "अनित्यात प्राह तेनैव दुःखं, दुःखाबिरामताम् ।" प्रमाणवा० १.२५६ । "बदलि दुक्खं । मं दुख वदमत्ता ।" संयुत्तनिकाय ३.२२ । विमुशिमग्ग २१.७-८।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org