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________________ १० ११२. पं० १४] टिप्पणानि । २७५ पृ० ११०. पं० १०. 'संकेतव्यवहार' तुलना - सन्मति० टी० पृ० १७५। पृ० ११०. पं० १३. 'अथ' यह पूर्वपक्ष नै या यि कके मतको लेकर हुआ है"व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थः" न्यायसू० २. २. ६५ । तत्त्वसंग्रह० पं० पृ० २८१ । सन्मति० टी० पृ० १७७. पं० १९।। पृ० ११०. प० १८. 'तथाहि तुलना-सन्मति० टी० पृ० २३३. पं०६।। पृ० ११०. पं० २६. 'अथ' तुलना-सन्मति० टी० पृ० २३४. पं० १। यह पक्ष भाट्टोंका है-देखो शास्त्रदी० अ० १. पा० ३. अधि० १०. पृ० ५१ । पृ० १११. पं० ११. 'नाक्रमाव' संपूर्ण कारिका इस प्रकार है "नाकमात् क्रमिणो भावो नाप्यपेक्षाऽविशेषिणः। क्रमाद् भवन्ति धीः कायात् क्रमं तस्यापि शंसति ॥" प्रमाणवा० १.४,५। व्याख्या-"नाक्रमात् ऋमिणः कार्यस्य भावः । क्रमरहितत्वात् कारणस्य । तनिष्पायानि कार्याणि सजायेरन् । क्रमवतः सहकारिणोऽपेक्ष्य क्रमाजनयिष्यतीति चेत् । नाप्यविशेषिणः स्थिरैकरूपस्य परैरनायविशेषस्य परेषां सहकारिणामपेक्षास्ति । तस्मात् क्रमाद् भवन्ती धीः कायात् , क्रमं तस्यापि कायस्य शंसति ।" मनो० १.४.५ । पृ० १११. पं० १७. 'ताप-च्छेद' तुलना "तापाच्छेदानिकषाद्वा कलधौतमिवामलम् । परीक्ष्यमाणं यत्रैव विक्रियां प्रतिपद्यते॥ तापाच्छेदाच निकषात्सुवर्णमिव पण्डितैः। परीक्ष्य भिक्षवो प्राचं मदचो न तु गौरवात् ॥" तत्त्वसं० का० ३५४४,३५८८ । ज्ञानसारसमुच्चय ३१ । पृ० ११२. पं० १४. 'अथ न ददाति वीतराग कोप और प्रसाद रहित होनेसे उनकी आराधना निष्फल है इस शंकाका समाधान अतिविस्तारसे जिनभद्र ने किया है । उसका सारांश यही है कि जैसे दानादि शुभाशुभ क्रियाओंका फल खायत्त है-अपने परिणाम पर निर्भर है उसी प्रकार वीतरागकी पूजाका फल भी अपने परिणाम पर ही निर्भर है अतएव यद्यपि जिन और सिद्ध वीतराग होनेसे कुछ फल देते नहीं तथापि उनकी आराधनासे आत्माके परिणाम विशुद्ध होते हैं और उसी विशुद्ध परिणामका शुभ फल मिलता है अतएव उनकी आराधना करना चाहिए। __ यह नियम नहीं किया जा सकता कि जो जो कोपादि रहित होगा वह फलद नहीं होगानिष्फल होगा। क्योंकि अन्नादि कोपादिरहित होते हुए भी निष्फल नहीं । और देखा तो यह गया है कि कोपादिविरहित ही सब वस्तुएँ फलद होती हैं-अनुग्रह और उपघातकी जनक होती हैं । जैसे चिन्तामणि, विष, गुड, मरीचादि औषधियाँ, इत्यादि । 'यदि कोपादि विरहित हीसे फलावाप्ति मानी जाय तब राजादिके द्वारा कुपित होनेपर धनहरण और प्रसन्न होनेपर धनप्रदान होता देखा गया है-वह नहीं होना चाहिए'इस शंकाका-समाधान जिन भद्र ने यह किया है कि वस्तुतः धनके हरण या धनकी प्राप्ति में खकृत कर्म ही कारण है। राजादिका क्रोधादि निमित्त मात्र है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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