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________________ २७८ टिप्पणानि। [पृ० ११५.५० १०उदः परिणामोऽसौ तरशाणां विचित्रता। मालयं हि तथा चित्रं विज्ञानास्यं प्रवर्तते ॥" लंकावतार १०. ३८६, ३८७ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० ११८. पं० १७ ॥ पृ० ११५. पं० १०. 'अहे!' तुलना "तसावुभयहानेन व्यावृत्त्यनुगमात्मका! पुरुषोऽभ्युपगन्तव्या इण्डकादिषु सर्पवत् ॥" श्लोकवा० आत्म० २८ । "यथाहे कुण्डलावस्था व्यपैति तदनन्तरम। सम्भवत्यार्जबावस्था सर्पत्वं त्वनुवर्तते ॥" तत्त्वसं० का० २२३ । न्यायबि० का० ११७। पृ० ११५. पं० १२. 'आविर्भाव:' तुलना तत्त्वसं० का० २६-२७ । सन्मति० टी० पृ० २९९. पं० २२। पृ० ११५. पं० १९. 'बुद्धि तुलना-"बुद्धिरूपलब्धिर्वानमित्यनान्तरम् ।" न्यायसू० १.१.१५। पृ० ११५. पं ३०. 'मिथ्यात्वमिति' तुलना - द्रव्यास्तिकनयवादी सांख्योंका खण्डन निम्न प्रन्थों में देखना चाहिए-ब्रमसू० शां० २. २.१-१०। प्रमाणवा० स्वो० कर्ण० पृ० ३२० । तत्त्वसं० का० ७-४५ । न्यायमं० वि० पृ० ४८७ । व्यो० पृ० ५४३ । कंदली० पृ० १४३ । आप्तमी० का० ३७-४० । सन्मति० टी० पृ. २९६ । न्यायकु० पृ० ३५४ । प्रमेयक० पृ० २८५ । स्याद्वादमं० का० १५ पृ० ११६. पं० २. 'सर्वव्यापित्वं आत्माके परिमाणके विषयमें उपनिषद्के ऋषिओंने लाना कल्पनाएँ की हैं। किन्तु पर्यवसान उसे व्यापक माननेमें हुआ इसका प्रमाण दार्शनिक सूत्रोंमें मिल जाता है । क्योंकि वेदान्तसूत्रके व्याख्याता निंबार्क, मध्व, रामानुज और वल्लभके अलावा सभी दार्शनिकसूत्रकारोंने और उनके व्याख्याताओंने आत्माको व्यापक ही माना है और सिद्ध किया है । वैदिक दार्शनिक रामानुजादि और अवैदिक दार्शनिक जैनोंने क्रमशः आत्माको अणुपरिमाण और देहपरिमाण माना है । आत्माको अणुपरिमाण माननेकी तथा देहपरिमाण माननेकी परंपराका दर्शन उपनिषदोंमें होता है । किन्तु उपनिषद्कालके बादके सभी वैदिक दार्शनिक आत्माके परिमाणकी अन्य सभी कल्पनाओंका निरास करके उसे सिर्फ व्यापक मानने लगे। उपनिषदोंमें आत्मपरिमाणके विषयमें जो कल्पनाएँ की गई हैं वे ये हैं कौषितकी उपनिषद्के ऋषिके मतसे आत्मा शरीरव्यापी है। उनका कहना था कि जैसे खुरा अपने म्यानमें, जैसे अग्नि अपने कुण्डमें व्याप्त है वैसे ही आस्मा शरीरमें नख और रोम पर्यन्त व्याप्त होकर रहता है। जैनाचार्योका भी यही मत है। बृहदारण्यकमें कहा गया है कि आस्मा चावल या यवके दाने जितना है। 1. "वया धुरः पुरधाने हिवा, विधभरोमा विश्वभरकुलावे एवमेवैष प्रज्ञास्मा इदं शरीरमनुप्रविष्ट मा कोमम्मामा नखेभ्यः"कौषी०४.२०। २."यथा नीहिर्वा पवो वा स एष सर्वस्वेशाना" वृहदा०५.६.१.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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