SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 470
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २७९ १० ११६. पं०४] टिप्पणानि । अनेक बार विभिन्न उपनिषदोंमें यह कहा गया है कि आत्मा अंगुष्ठपरिमाण है। छान्दोग्योपनिषदमें प्रादेशपरिमाण होनेका उल्लेख है । प्रादेशका मतलब है बिलस्त'। इसप्रकार परिमाणको उत्तरोत्तर बढाते ऋषिओंकी कल्पना व्यापक तक पहुँच गई । मुण्डक उपनिषदमें कहा है कि आत्मा नित्य है, विभु है, सर्वगत है-"नित्यं विभुं सर्वगतम्" मुण्डको० १.१.६। इसीको दार्शनिक ऋषिओंने अपनाया । प्रो० रानडेका कहना है कि इन परस्पर विरोधी मन्तव्यों से किसको ठीक मानना इसका जब निर्णय करना कठिन होगया तो किसीने कह दिया कि "शरीरमादेशांगुष्ठमात्रमणोरप्यण्व्यं ध्यात्वा"-मैत्री० ६.३८ इत्यादि । इतना ही नहीं किन्तु विरोधके समन्वयकी भावनासे किसीने तो यहाँ तक कह दिया कि आत्मा अणुसे भी छोटा है और महत्से भी महान् है। किन्तु इस कथनकी संगति क्या हो सकती है इसका स्पष्टीकरण उपनिषदोंमें नहीं। यही कारण है कि बादके दार्शनिकोंने उसे सिर्फ व्यापक मानना ही उचित समझा। जैन दार्शनिकोंने देहपरिमाण और व्यापकताका समन्वय अपनी दृष्टिसे किया है। केवलज्ञानकी दृष्टिसे आत्माको व्यापक और आत्मप्रदेशकी दृष्टिसे अव्यापक-अर्थात् शरीरव्याप्त माना जा सकता है ऐसा द्रव्य संग्रह की वृत्तिमें ब्रह्मदेव ने कहा है। उपाध्याय यशोविजयने कहा है कि समुद्धात दशामें आत्मा लोकव्यापी होता है उसी बातको चढाकर दूसरोंने आत्माको व्यापक माना है जो अर्थवाद मात्र है । उन्होंने अन्यत्र आत्माकी लोकप्रमित प्रदेशमें व्याप्त होनेकी शक्तिके कारण उसे विभु कहा है और आवरणके कारण उसे देहपरिमाण माना है "शक्त्या विभुः स इह लोकमितप्रदेशः। व्यक्त्या तु कर्मकृतसौवशरीरमानः॥" न्यायखण्डखाय । आत्माकी व्यापकताकी चर्चा के लिये देखो० वैशे० ७. १. २२ । व्यो० पृ० ११० । कंदली पृ० ८८ । न्यायमं० वि० पृ० ४६८ । प्रकरणपं० पृ० १५८ सन्मति० टी० पृ० १३३ । न्यायक० पृ० २६१ । प्रमेयक० पृ० ५७० । स्याद्वादमं० का०९। पृ० ११६. पं० ४. 'यस्याप्यभ्युपगमः सोपि इसे इस प्रकार शुद्ध करना चाहिए'यस्याप्यभ्युपगमः [प्रत्यक्ष आत्मा इति ] सोपि' प्राचीन न्याय और वैशेषिक दर्शनमें आत्माका प्रत्यक्ष नहीं किन्तु अनुमान माना गया था १. "अंगुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य आरमनि तिष्ठति"। कठो०२.२.१२ । मैत्री०६.३८। २. "प्रादेशमात्रमभिविमानमात्मानम्" छान्दो० ५.१८.१ । मैत्री०६.३८। ३. अभिधानचि०३.२५९ । 8. A Constructive survey of Upanishadic Philosophy-P. 133. ५. "मणोरणीयान् महतो महीयान् आत्माय जन्तोर्निहितो गुहायाम् ।" कठो० १.२.२० । छान्दो० ३.१४.३। १. केवलज्ञानोत्पत्तिप्रस्तावे ज्ञानापेक्षया व्यवहारनवेन कोकाकोकण्यापका, मच प्रदेशापेक्षया।" द्रव्यसं०० गा०१०। ७. शालवा० यशो०टी०पू०३३८। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy