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________________ २८० टिप्पणानि। [पृ० ११६. पं० २०किन्तु उदयोतकर और उससे बाद के नवीन नैयापिकोंने आत्माका मानस प्रत्यक्ष माना हैदेखो-प्रमाणमीमांसा भाषा० पृ० १३७ । पृ० ११६. पं० २०. 'सर्वत्रोपलम्यमानगुणत्वात् तुलना - "तथा धर्माधर्मयोरात्मगुणत्वात् तदाभयस्याव्यापकत्वेन स्यादमेकर्षज्वलनम्, वायोस्तिर्यग्गमनम्, अणुमनसोस्वायं कर्मेति तयोः स्वाभयसंयोगापेक्षित्वात्।" व्यो० १० १११ । सन्मति० टीक पृ० १४५। . पृ० ११७. ५० ३. 'एकान्तामेदवादिनो' जो लोग उत्पाद और विनाशकृत मेद नही मानते उन्हें प्रस्तुतमें आचार्यने अमेदवादी कहा है। अर्थात् आकाश, काल, दिग्, आस्मा और मनको एकान्त नित्य माननेके कारण नै या यिक और वैशेषिक एकान्तामेदवादी हैं। और शब्दको एकान्तनिस्य मीमांसक मानता है अतएष शब्दकी अपेक्षासे मी मासक मी एकान्तामेदवादी है। इसी दृष्टिसे 'एतेन आकाशकालदिगात्ममनम्शब्दाना केवलं प्रौव्यमभ्युप. गच्छन्तोऽशुधनयवादिनो निरस्ताः' (पृ० ११६. पं० १) इस कथनको समझना चाहिए। पृ० ११७. पं० १ 'विनाशस्याहेतुकत्वात् दि मा गादि बौद्धोंने वस्तुकी क्षणिकताको तार्किकभूमिका पर लेजाकर कहा है कि यदि वस्तुको अनित्य मानना हो तब उसकी स्थिति एक क्षण, जो कि अविभाज्य समय रूप है, उससे अधिक नहीं मानी जासकती है। वह उत्पन्न हुई यही उसका विनाश है । यदि वह एकाधिक क्षण स्थायी होजाय तब वह नित्य हो जायगी। यदि उसको अनित्य मानना हो तो उसके विनाशको उसके खभावरूप मानना होगा विनाश और वस्तुको अभिन्न मानना होगा। उत्पत्ति और विनाशका काल एक ही है । अतएव फलित यही होता है कि जिन कारणोंसे वस्तु उत्पन्न हुई तदतिरिक्त कारणोंकी आवश्यकता विनाशके लिये नहीं-ऐसा मन्तव्य दिमाग का रहा होगा इसका पता उद्दयोतकरके "अथोत्पन्नः विनष्टः इत्येककालः । उत्पत्तिविनाशी एककालो" (न्यायवा० पृ० ४१५) इस बौद्धपूर्वपक्षसे चलाता है । इसी नितुक विनाशवादका समर्थन धर्म की र्ति आदिने किया है "अहेतुत्वाद्विताशस्य खभावादनुबन्धिता। सापेक्षाणां हि भावानां नावश्यंभावतेश्यते ॥” प्रमाणवा० ३.१९३ । "येषां तापद विनायो रयते तेषां यदि न प्रतिक्षणं विनाशः स्यात् तदा विनाशमतीतिरेव न स्यात् । तथा हि यदि द्वितीये क्षणे भावस्य स्थितिस्तदासी सर्वदेव तिष्ठेत् । द्वितीयेऽपि क्षणे क्षणद्वयस्थायिखभावत्वात् । तदा च तेनापरक्षणद्वयं स्थातव्यम् इति नविनाशो भावस्य स्यात् । श्यते च । तस्माद् विनाशप्रतीत्यन्यथानुपपस्या प्रतिक्षणविनाशानुमानम्।" प्रमाणवा० स्वो० कणे० पृ० ३६९ । हेतुबि० टी० पृ० १४१ ।। __ इन तार्किक बौद्धों ने सत्त्व और क्षणिकत्वका अविनाभाव माना है । ऐसा कोई सत् नहीं जो क्षणिक नहीं । संस्कृत-असंस्कृत सभी-वस्तुएँ यदि सत् हैं तो क्षणिक ही मानना चाहिए। अन्यथा असत् ही होंगी-“यत् सत् तत् क्षणिकमेव" हेतु० पृ० ४४ । "नचा विनाशो नाम कश्चिद्, भाव एव हि नाशः।" प्रमाप वा० खो०पू० ३६६ । “यो हि भावा क्षणस्थायी विनाश इति गीयते ।" तस्वसं० का० ३७५। "वत् खभाववर सदस्यतिरेकिणो नामस्य विष्पत्ती एव लिष्पनत्वात्।" तत्त्वसं०पं०का०३७६। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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