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भगवान् महावीरसे पूर्वकी खिति । आगम युगके दार्शनिक तत्वों के विवेचनमें मैंने श्वेताम्बरप्रसिद्ध मूल भागमोंका ही उपयोग किया है। दिगम्बके मूल षट्खण्डागम आदिका उपयोग मैंने नहीं किया । उन शाखोंका दर्शनके साथ अधिक सम्बन्ध नहीं है । उन ग्रन्थोंमें जैन कर्मतत्त्वका ही विशेष विवरण है। मैताम्बरोंके नियुक्ति आदि टीकापन्योंका कहीं कहीं स्पष्टीकरणके लिये उपयोग किया है, किन्तु जो मूलमें न हो ऐसी नियुक्ति आदिकी बातोंको प्रस्तुत आगम युगके दर्शन तत्के निरूपणमें स्थान नहीं दिया है । इसका कारण यह है कि हम आगम साहित्यके दो विभाग कर सकते हैं। एक मूल शास्त्रका तथा दूसरा टीका-नियुक्ति-भाष्य-चूर्णिका । प्रस्तुतमें मूलका ही विवेचन अमीष्ट है क्यों कि हमें यह देखना है कि सिद्धसेनके सामने क्या वस्तु थी । नियुक्तिके विषयमें यह निश्चित रूपसे अमी कहना कठिन है कि वे सिद्धसेनके सामने इसी रूपमें उपस्थित. पी या नहीं। उपलब्ध नियुक्तियोंसे यह प्रतीत होता है कि उनमें प्राचीन नियुक्तियाँ समाविष्ट कर दी गई हैं। किन्तु सर्वत्र यह बताना कठिन है कि कितना अंश मूल प्राचीन नियुक्तिका है और कितना अंश भद्रबाहुका है । अत एव नियुक्तिका अध्ययन किसी अन्य मौकेके लिये स्थगित रख कर प्रस्तुतमें मूल आगममें खास कर अंग, उपांग और नन्दी-अनुयोगके बाधार पर चर्चा की जायगी।
आगमिक दार्शनिक तस्वके विवेचनके पहले वेदसे लेकर उपनिषद् पर्यन्त विचारधाराके तथा बौद्ध त्रिपिटककी विचारधाराके प्रस्तुतोपयोगी अंशका भी भूमिका रूपसे आकलन किया है-सो इस दृष्टिसे कि तत्वविचारमें वैदिक और बौद्ध दोनों धाराओंके अघात-प्रख्याघातसे जैन आगमिक दार्शनिक चिन्तनधाराने कैसा रूप लिया यह स्पष्ट हो जाय ।
१ भगवान महावीरसे पूर्वकी स्थिति। (१) वेदसे उपनिषद् पर्यन्त ।
विपके स्वरूपके विषयमें नाना प्रकारके प्रश्न और उन प्रश्नोंका समाधान यह विविध प्रकारसे प्राचीन कालसे होता आया है । इस बातका साक्षी ऋग्वेदसे लेकर उपनिषद् और बादका समस्त दार्शनिक सूत्र और टीका-साहिल्य है ।
ऋग्वेदका दीर्घतमा ऋषि विश्वके मूल कारण और स्वरूपकी खोजमें लीन होकर प्रश्न करता है कि इस विश्वकी उत्पत्ति कैसी हुई है, इसे कौन जानता है ? है कोई ऐसा जो जानकार से पूछ कर इसका पता लगावे ! वह फिर कहता है कि मैं तो नहीं जानता किन्तु खोजमें इधर उधर विचरता हूँ तो वचनके द्वारा सत्यके दर्शन होते हैं । खोज करते करते दीर्घतमाने अन्तमें कह दिया कि - "एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति" । सत् तो एक ही है किन्तु विद्वान् उसका वर्णन कई प्रकारसे करते हैं । अर्थात् एक ही तत्त्वके विषयमें नाना प्रकारके वचन प्रयोग देखे जाते हैं।
१ऋग्वेद १०.५,२७,८८,१२९ इत्यादि । तैत्तिरीयोपनिषद् ३.१ । श्वेता० १.१ । २भाग्वेद १.१६४.४। ३ऋग्वेद १.१६४.३७। ४ाग्वेद १.१६४.४६ ।
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