SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना। १. आगम युगका जैन दर्शन । [१] प्रमेयतत्व। वर्णनके सुमीतेकी दृष्टिसे जैन दर्शनके विषयोंका संक्षिप्त वर्गीकरण करमा हो तो वह प्रमेयतत्व और प्रमाणतत्व इन दो मेदोंमें किया जा सकता है । न्यायावतार और उसके वासिकके इन दो विषयोंके मन्तव्योंका निरूपण करनेके पहले यह आवश्यक है कि न्यायावतारके पूनि बल दर्शनशासकी क्या सिति थी उसका संक्षिप्त विवेचन किया जाय । ऐसा करनेसे. वसर होगा कि जैन दर्शनशाखमें सिद्धसेन और शान्त्याचार्यकी क्या देन है। और वनशासक विकासक्रमको चार युगोंमें विभक्त किया जा सकता है १ आगम युग। २ बनेकान्तसापन युग। ३ प्रमाणशासब्यवस्था युग । नवीनम्पाय युग। थुगोंके लक्षण युगोंके नामसे ही स्पष्ट है । कालमर्यादा इस प्रकार रखी जा सकती हैधागम युग भगवान महावीरके निर्वाणसे लेकर करीब एक हजार वर्षका है (वि० ५० १७०. वि० ५००), दूसरा वि० पाँचवींसे आठवीं शताब्दी तक; तीसरा आठवींसे सत्रहवीं तक। और चौथा अठारहवींसे आधुनिक समय पर्यन्त । इन समी युगोंकी विशेषताओंका मैंने अन्यत्र संक्षिप्त विवेचन किया है। दसरे, तीसरे और चौथे युगकी दार्शनिक संपत्तिक विषयमें १० पण्डित सुखलालजी, पं० कैलाशचन्द्रजी, पं० महेन्द्रकुमारजी आदि विद्वानोंने पर्याप्त मात्रामें प्रकाश डाला है किन्तु आगम युगके साहित्यमें जैनदर्शनके प्रमेय और प्रमाण तत्वके विषयमें क्या क्या मन्तव्य हैं उनका संकलन पर्याप्तमात्रामें नहीं हुआ है। अत एव यहाँ जैन आगमोंके आधारसे उन दो तत्त्वोंका संकलन करनेका प्रयन किया जाता है। ऐसा होनेसे ही अनेकान्त युगके और प्रमाणशासव्यवस्था युगके विविध प्रवाहोंका उद्गम क्या है, आगममें वह है कि नहीं, है तो कैसा है यह स्पष्ट होगा, इतना ही नहीं बल्कि जैन आचार्योंने मूल तत्वोंका कैसा पल्लवन और विकसन किया तथा किन नवीन तत्वोंको तत्कालीन दार्शनिक विचारधारामैसे अपना कर अपने तत्वोंको व्यवस्थित किया यह भी स्पष्ट हो सकेगा तथा प्रस्तुतमें सिद्धसेन और शान्ख्याचार्यकी जैन दर्शनको क्या देन है यह भी स्पष्ट हो जायगा। प्रेमी अभिनन्दन मन्भमें मेरा लेख पू. ३०३, तथा जैन संस्कृति संशोधन मंडळ पत्रिका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy