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०६०. पं० ५]
टिप्पणानि ।
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धर्मकीर्ति ने वस्तुके खरूप और पररूप ऐसे दो रूप माने हैं। जैनों ने भी ये ही दोनों रूप माने हैं। इस अर्थ में दोनोंको उभयवाद इष्ट है फिर भी दोनोंमें मतभेद है । जैनोंके मतसे आपेक्षिक धर्मके मूलमें केवल वासना ही नहीं है' । अत एव वस्तुका पररूप आपेक्षिक होते हुए भी खरूप के समान ही वास्तविक । जब कि बौद्धों के मतसे पररूप कोरी कल्पना के बलसे प्रवृत्त है । उस कल्पनाका उपादान वस्तु नहीं किन्तु वासना 1
इस प्रकार सामान्य यह वस्तुका पररूप है - अत एव कल्पनाभूलक और वासनामूलक है । बौद्धों ने सामान्यको वासनामूलक मानकर भी अर्थसम्बद्ध माना है अन्यथा मरुमरीचिकाकी कल्पना या आकाशकेशादिकी कल्पना और वह्निकल्पना में भेद ही क्या ? । इस प्रकार दोनों कल्पनाएँ होते हुए भी एक अर्थसे सम्बद्ध है दूसरी असम्बद्ध । जो अर्थ से सम्बद्ध हो वही सामान्य और असम्बद्ध हो वह असत् । इस प्रकार बौद्धोने सामान्यका उपादान वासना मानकर भी उसे अर्थसे सम्बद्ध ही माना है तब जैन सम्मत आपेक्षिक धर्मोकी वास्तविकता और बौद्धसम्मत आपेक्षिक धर्मोकी अवास्तविकता में शब्दतः भेद भले ही हो, अर्थतः कुछ भी भेद नहीं है। जैनों का तो कहना है कि कथञ्चित् तादात्म्यके अभाव में किसी भी प्रकारका सम्बन्ध घटित नहीं हो सकता है । अत एव सामान्यको यदि अर्थसम्बद्ध माना जाय तो वह कथंचित् अर्थाभिन्न ही सिद्ध होगा । ऐसी स्थितिमें वह एकान्तरूपसे अवास्तविक नहीं हो सकता ।
- पहले ही यह कहा गया है कि बौद्धों के प्रमाणविप्लववाद के मूलमें क्षणिकवाद है । जैनों को भी पयार्यार्थिक दृष्टिसे क्षणिकवाद इष्ट है । पर्यायनयकी अपेक्षासे वस्तु प्रत्येक क्षणमें नई नई होती है अत एव कोई भी प्रमाण पर्यायनयकी दृष्टिसे गृहीतग्राहि नहीं होता । अत एव जैन दृष्टिसे भी प्रमाणविप्लव स्वतःसिद्ध है । इसी पर्यायवादका आश्रय लेकर प्रस्तुतमें शान्याचार्यने प्रमाणविप्लववादका आश्रय लिया है । परन्तु जैनदार्शनिक एकान्तवादी तो है नहीं । वे पर्यायनयके समान ही द्रव्यनयको भी महत्त्व देते हैं । इस लिये प्रमाणसंप्लव भी जैनसम्मत है । द्रव्यार्थिकनकी अपेक्षासे वस्तु स्थिर है, नित्य है । अत एव एक ही वस्तुमें अनेक प्रमाणोंकी प्रवृत्ति संभव है । किन्तु भिन्न भिन्न प्रमाणोंमें उपयोगविशेष होने पर ही प्रमाण संप्लव इष्ट है, अन्यथा नहीं" । अर्थात् अग्निविशेषको परोपदेशसे जानकर यदि कोई उसी अग्निको अनुमानसे जानना चाहे तभी उस अग्निमें अनुमानप्रमाणकी प्रवृत्ति हो सकती है । विशेषता यह होगी कि परोपदेश से अग्निका ज्ञान मात्र सामान्यरूपसे होता है जबकि अनुमानके द्वारा उसी सामान्य वह्निका ज्ञान धूमसम्बद्धरूपसे होता है । उसी अनुमित वह्निको यदि कोई प्रत्यक्ष करना चाहे तो अग्निदेशमें जा कर उसका प्रत्यक्ष ज्ञान भी कर सकता है । किन्तु विशेषता यह होगी कि प्रमाता उस सामान्य वह्निके विशेषधर्म तृणजन्यत्व, पर्णजन्यत्व आदि भी जान लेता है ।
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१. ततो यावन्ति सम्बन्ध्यन्तराणि तावन्तः प्रत्येकं भावस्वभावभेदाः परस्परव्यावृत्ताः । नहि कस्यचित् केनचिद साक्षात्परंपरया वा सम्बन्धो नास्ति इति, निरूपस्य स्वप्रसङ्गात् " - अष्टश० का० ११ । "म चापेक्षिकता व्यासा नीरूपत्वेन"-तरवार्थम्लो० पृ० १५६ । २. "तस्य संबन्धिभिः कथंचित् वादाम्बे कार्यकारणादीनामपि तदेवास्तु " अष्टस० पृ० २१८ । ३. प्रमाणमी० १.१.४ । ४. अष्टस० पृ० ४ और १७१ । प्रस्तुत वार्तिककी का० २३ । ५. प्रमाण संवाद न्यायवैशेषिकोंको भी इष्ट है - व्यो० पृ० ३२६, ५८६, । कंदली पृ० ६१ । न्यायभा० १.१.३ ।
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