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________________ टिप्पणानि। [पृ०६०. पं०५___ न्यायावतार (का० १) में इतना ही कहा गया कि प्रमेयका विनिश्चय दो प्रकारका है मत एव प्रमाण भी दो हैं । शान्त्या चार्य ने वार्तिकमें स्पष्टीकरण किया कि वस्तुनः प्रमेय एक है किन्तु ज्ञाता की अपेक्षासे उसका द्वैविध्य मानना चाहिए । जिसके दूर-आसन्न होनेपर प्रतिभास मेद हो अर्थात् अस्पष्ट या स्पष्ट प्रतिभास क्रमशः होते हों तो वह प्रमेय प्रत्यक्ष कहा जाता है और इसके विपरीत जो हो वह परोक्ष है । धूमादिलिङ्गज्ञानद्वारा अनुमित वहि दूर या आसन्न हो तब भी तत्कृत प्रतिभासभेद देखा नहीं जाता अत एव वहि परोक्ष प्रमेय है । फलितार्थ यह है कि एक ही वहि किसी प्रमाताकी अपेक्षासे प्रत्यक्ष और किसी अन्यकी अपेक्षासे परोक्ष हो सकता है । एक ही प्रमेयके दो रूप होनेसे प्रमाण भी दो ही हैं । शान्त्याचार्य जिसे प्रत्यक्ष प्रमेय कहते हैं उसे ही धर्म की र्ति स्खलक्षण कहते हैं “यस्यार्थस्य सन्निधानासनिधानाभ्यां वानप्रतिमासमेदः, तत् स्खलक्षणम् ।" न्यायबिन्दु पृ० २३ । और शा त्या चार्य सम्मत परोक्ष प्रमेय ही धर्म की ति सम्मत सामान्य है"अन्यत् सामान्यलक्षणम्" न्यायबिन्दु पृ० २४ ।। _ "विकल्पविज्ञानेनावसीयमानो यर्थः सन्निधानासनिधानाभ्यां बानप्रतिभासं न मिनति"-न्यायबिन्दुटीका पृ० २४ । शान्त्या चार्य ने प्रमेयको प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप कहा है। धर्म की र्ति भी खलक्षणको प्रत्यक्ष और सामान्यको परोक्ष कहता है । जिस प्रकार दिमाग और धर्म की र्ति ने प्रमेय द्वैविध्यके आधार पर प्रमाण द्वैविध्य सिद्ध किया है उसी प्रकार न्या या व तार और उसके 'वार्तिकमें भी वैविष्य सिद्ध किया गया है। इतना तो जैन और बौद्ध का साम्य है किन्तु साम्यकी अपेक्षा जो वैषम्य है वह अधिक महत्वका है । वैषम्य भी आपाततः मालूम होता है, वस्तुतः वह है नीं । अत एव उसका विवेचन कम महस्त्रका नहीं है । बौद्ध दार्शनिक जैसा कि प्रथम कहा जा चुका है सामान्यको अवस्तुभूत मानते हैं। तब जैन सामान्यको वस्तुभूत मानते हैं । जैन दार्शनिकोंके मतसे वस्तु सामान्य-द्रव्य और पर्यायविशेषरूप है । अन्य दार्शनिक विरोधादि दोषोंसे भीत हो कर वस्तुको उभयात्मक माननेसे इनकार करते हैं और यही कारण है कि धर्म की र्ति ने भी उभयात्मक वस्तुवादका निषेध किया है -प्रमाणवा० २.७६-८० । किन्तु जैन दार्शनिकोंको उभयवादमें कोई दोष प्रतीत नहीं होता बल्कि एकान्तवादमें ही दोष मालूम होता है । धर्म की र्ति ने वस्तुको एक-विशेष रूप माना फिर भी उसने यदि अनुमानके प्रमेयरूपसे प्रतीत सामान्यको खलक्षणसे अत्यन्त पृथक् न मानकर स्खलक्षण ही को सामान्यलक्षण माना' तब वह स्वलक्षण एकान्तरूपसे विशेषरूप ही है यह बात सिद्ध हो नहीं सकती। तथापि जैसे जैन दार्शनिक स्पष्ट शब्दोंमें वस्तुको उमयात्मक स्वीकृत करते हैं बौद्ध दार्शनिक वैसा खीकार नहीं करके अपने एकान्तवादका समर्थन करते जाते हैं। प्रमालक्ष्मकार भी यही मानते हैं-(पृ०६ तथा का०३१६) कि प्रमाणसंख्याका नियमन विषयके आधारसे होता है। २. अष्टस० पृ०२२६। ३. "स्वलक्षणमेव पररूपेण गतेः सामान्य लक्षणमिष्टम् । तच सदेव।"-प्रमाणवा० मनो०२.६५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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