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________________ पृ० ७७. पं० ९] टिप्पणानि । २४५ नन्दी सूत्र में परोक्षके भेद गिनाते हुए मतिज्ञानके संपूर्ण मेदोपमेदोंको बताया गया है' । उसमें मानस अवग्रहादि तथा स्मृत्यादि भी गिनाये हैं । किन्तु सिर्फ इन्द्रिय ज्ञानको ही प्रत्यक्षके भेदरूपसे गिनाया । इससे स्पष्ट है कि नन्दी कार के मतमें सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमें सिर्फ इन्द्रिय ज्ञानका समावेश है अनिन्द्रिय ज्ञानका नहीं । अत एव यह कहना पडता है कि अकलंक ने स्मृत्यादिको मानसप्रत्यक्ष कहा उसका आधार आगमिक परंपरा नहीं है। उन्होंने अपनी सूझसे ही ऐसा किया है या किसी अहात परंपराका आधार लेकर किया है इसका निर्णय कठिन है । इतना तो निर्णयपूर्वक कहा जा सकता है कि उनके इस अभिप्रायको स्वयं उनके टीकाकारोंने तथा विधानन्द जैसे तार्किक विचारकोंने पसंद नहीं किया है । किन्तु शान्त्या चार्य के मतानुसार अनन्तवीर्य उक्त मन्तव्यका स्वीकार करते हैं। अनन्त वीर्य की उक्त मान्यताका आधार हमें प्राप्त नही हुआ है। विद्यानन्द और प्रभा चन्द्र ने तो अकलंक के वचनोंमेंसे ही अपने अभिप्रायको फलित करने की कोशिश की है। और अकलंक के मूल अभिप्रायको ही बदल दिया है । आचार्य विद्यानन्द ने उक्त परंपराका परित्याग करके शुद्ध तार्किक दृष्टिसे स्मृति आदि ज्ञानोंको परोक्ष ही कहा है । और आश्चर्य है कि उन्होंने अपने समर्थनमें अकलंक की कारिका भी उद्धृत की है "तत्रावग्रहादिधारणापर्यन्तं मतिज्ञानमपि देशतो वैशद्यसद्भाबाद सांव्यवहारिकम् इन्द्रियप्रत्यक्षमतीन्द्रियप्रत्यक्षं चाभिधीयमानं न विरुध्यते । ततः शेषस्य मतिज्ञानस्य स्मृति-संज्ञा-चिन्ता-Sऽभिनिबोधलक्षणस्य, भुतस्य च परोक्षत्वव्यवस्थिते । तदुकम् 9 अफलंकदेवै: "प्रत्यक्षं विशवं ज्ञानं मुख्यसंव्यवहारतः । परोक्षं शेषविज्ञानं प्रमाणमिति संग्रहः ॥” प्रमाणप० पृ० ६८ । इतना ही नहीं उन्होंने स्मृतिको अनिन्द्रियप्रत्यक्ष माननेवालेका खण्डन भी किया हैवही पृ० ६९ । Body - आचार्य प्रभा चन्द्र ने उक्त स्मृतिरूप अनिन्द्रिय प्रत्यक्षकी व्याख्या करते समय कहा है कि अकलंकने स्मृत्यादिको जो मानसप्रत्यक्ष कहा है वह खरूपांशमें स्पष्टताकी अपेक्षासे है । बाह्यार्थकी अपेक्षासे स्मृत्यादि ज्ञान सर्वथा अस्पष्ट होनेसे परोक्ष ही है - न्यायकु० पृ० ६८३ । उनका यह स्पष्टीकरण जैन तार्किकोंकी स्मृत्यादिको परोक्षान्तर्गत करनेकी पद्धतिका एकान्ततः अनुसरण और अकलंकसंगत परंपराको अमान्य करके ही हुआ है । अत एव उन्होंने लघीयबय गत "ज्ञानमाद्यम्” (का० १० ) इत्यादि कारिकाकी व्याख्या मी खमान्यतानुकूल की हैं जो विद्यानन्द आदिसे विपरीत ही है । उन्होंने व्याख्या की है कि नामयोजनासे पहले होनेबाले अस्पष्ट ज्ञान मी श्रुत हैं । और ऐसे अस्पष्ट ज्ञानोंमें स्मृति, संज्ञा इत्यादि हैं – न्यायकु • पृ० ४०४ । अर्थात् इनके मतसे स्मृत्यादि मतिरूप है ही नहीं । तब विद्यानन्दका कहना है कि' स्मृत्यादि ज्ञान नामयोजनासे पहले मति हैं और नामयोजनाके बाद श्रुत हैं । स्मृत्यादि १. सूत्र २६-३३ / २. स्वार्थको० पृ० २३९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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