________________
२४६
टिप्पणानि ।
[ ४० ७७: पं० ११
1
। अनन्तवीर्य भी स्मृत्या
मत्यन्तर्गत हो कर भी परोक्ष हैं ऐसा विद्यानन्दका स्पष्ट अभिप्राय है दिको मति और श्रुतरूप मानते हैं - सिद्धिवि० टी० पृ० १०० । अभय देव ने तो एक दूसरा रास्ता लिया । उन्होंने उमा खाति के सूत्रका तात्पर्य बतलाया कि स्मृत्यादि ज्ञानोंका विषय एक है । स्मृत्यादि ज्ञान मतिरूप हैं कि श्रुतरूप या वे कब मति हैं और कब श्रुत- इन प्रश्नोंका उत्तर उन्होंने अपनी ओर न देकरके अ कलंकविद्या नं. द-अ न म्त वीर्यसंमत मन्तव्यको 'केचित् ' के नामसे उद्धृत कर दिया । तथा उसके विरोधमें सैद्धान्तिकों के मन्तव्यको रखा कि मतिज्ञानके ही स्मृत्यादि शब्द वाचक हैं । सैद्धान्तिकोंके इस मन्तव्य के लिये विशेषावश्यक भाष्य गा० ३९६ -४०१ देखना चाहिए ।
पृ० ७७. पं० ११. 'प्रातिभम् ' प्रातिभको मानसप्रत्यक्ष माननेवाला कौन टीकाकार शान्त्या चार्य को अभिप्रेत है यह कहना कठिन है ।
म्याय कुमुद चन्द्र में प्रभा चन्द्र ने प्रसंगसे उसे मनोमात्र निमित्तक कहा है । अत एव उनके मतमें वह मानसप्रत्यक्ष हो तो कोई आश्वर्यकी बात नहीं । अन्यत्र उन्होंने शब्द, लिङ्ग और अक्षसे - इन्द्रियसे वह उत्पन्न नहीं होता ऐसा भी कहा है ' ।
न्यायसूत्र मूल प्रसंगसे प्रातिभका उल्लेख है किन्तु उसके खरूप और सामग्रीके विषयमें न्याय सूत्र मौन है। परन्तु न्या य सूत्र के टीकाकार जयन्त ने स्पष्टरूपसे उसे मानसप्रत्यक्ष सिद्ध किया है.
-
"अपि चानागतं ज्ञानमस्मदादेरपि क्वचित् ।
प्रमाणं प्रतिमं श्वो मे भ्राताऽऽगन्तेति दृश्यते ॥ नानर्थजं न सन्दिग्धं न बाधविधुरीकृतम् ।
न दुष्टकारणं चेति प्रमाणमिदमिष्यताम् ॥......
प्रमाणं च सन् प्रत्यक्षमेव न प्रमाणान्तरम् । शब्दलिङ्ग सारूप्यनिमित्तानपेक्षस्यात् । ननु प्रत्यक्षमपि मा भूद् इन्द्रियानपेक्षत्वात् । मैवम् । मनस एव तत्रेन्द्रियत्वात् । ....... शब्दाद्युपायान्तरविरतौ च जायमानमनवद्यं ज्ञानं मानसं प्रत्यक्षं भवति ।" न्यायमं० वि० पृ० १०६ - १०७ ।
वैशेषिकसूत्र में आर्ष और सिद्धदर्शनका उल्लेख है । इन दोनों ज्ञानकी उत्पत्तिमें कणाद ने इन्द्रियको नहीं पर धर्मको कारणरूपसे बताया है । प्रशस्त पाद ने विद्याके मेद गिनाते हुए आर्षको प्रत्यक्षसे स्वतन्त्ररूपसे गिनाया है और उसकी व्याख्या के समय आ ज्ञानको ही प्रातिभ कहा है - "विद्यापि चतुर्विधा - प्रत्यक्ष लैङ्गिक स्मृत्यार्षलक्षणा ।” प्रशस्त ० ५५२ । "आम्नायविधातॄणामृषीणामतीतानागतवर्तमानेष्यतीन्द्रियेष्वर्थेषु धर्मादिषु
ग्रन्थोपनिबद्धेषु अनुपनिबद्धेषु चात्ममनसोः संयोगात् धर्मविशेषाच्च यत् प्रातिमं यथार्थनिवेदनं ज्ञानमुत्पद्यते तदार्षमित्याचक्षते । तत्तु प्रस्तारेण देवर्षीणाम् । कदाचिदेव लौकिकानां यथा कन्यका ब्रवीति श्वो मे भ्राताऽऽगन्तेति हृदयं मे कथयतीति" प्रशस्त ० पृ० ६२१ ।
१. सम्मति० टी० पृ० ५५३ । २. " इन्द्रियादिबाह्यसामग्रीनिरपेक्षं हि मनोमात्रसामग्रीप्रभवं अर्थ तथाभावप्रकाशं ज्ञानं प्रतिभेति प्रसिद्धम् 'वो मे भ्राता आगन्ता' इत्यादिवत्" न्याय कु० ५. "भाषं सिद्धदर्शनं च
पृ० ५९६ । ३. प्रमेयक० पृ० धर्मेभ्यः । " वैशे० ९.२.१३ ।
२५८ । ४. न्यायसू० ३.२.३४ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org