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________________ ०७७. पं० ११] टिप्पणानि । २४७ व्योम शिव ने इस प्रातिभज्ञानको इन्द्रियज तथा अनिन्द्रियज नहीं होनेसे स्पष्ट ही प्रत्यक्ष व्यतिरिक्त माना है । तथा लिङ्ग और शब्द जन्य या शाब्दमें भी नहीं किन्तु इसे पृथक् ही प्रमाण म्यो० पृ० ६२२ । किन्तु शंकर मिश्र के उल्लेखानुसार वृत्तिकृत् ने आर्षका समावेश योगिप्रत्यक्षमें किया है । स्वयं शंकर मिश्र का कहना है कि जब उत्प्रेक्षासहकृत मनसे उसकी उत्पत्ति होती है तब उसका समावेश मानस प्रत्यक्षमें होता है। वह नियमदर्शनादि लिङ्ग जनित भी होता है ऐसा शंकर मिश्र का कथन है- वैशे० उप० ९.२.१३ । मी नहीं अत एव उसका समावेश अनुमान मानना चाहिए ऐसा उसका मन्तव्य है - योगसूत्र में प्रातिभज्ञानको सर्वप्राहि बताया है "प्रातिभाद्वा सर्वम्” योग० ३.३३ । योग भाष्य में इसके खामिरूपसे योगीका उल्लेख है । अत एव कहा जा सकता है कि उनके तसे प्रातिभ योगिप्रत्यक्षान्तर्गत है । अभय देव ने प्रातिभको आत्माकी विशेषयोग्यताके कारण उत्पन्न मान कर उसे विशद होनेसे प्रत्यक्षान्तर्गत ही माना है । तथा वह इन्द्रिय या अनिन्द्रिय निरपेक्ष है ऐसा भी कहा है - सन्मति० टी० पृ० ५५२ । आचार्य विद्यानन्द ने 'उत्तरप्रतिपत्तिरूप प्रतिभाको श्रुतान्तर्गत माना है । और अभ्यासज प्रतिभाको प्रत्यभिज्ञाके अन्तर्गत किया है । प्रत्यभिज्ञा मतिज्ञानका भेद है किन्तु परोक्ष है प्रत्यक्ष नहीं - तस्वार्थश्लो० पृ० २४३ । मीमांसकों का कहना कि प्रातिभज्ञान लिङ्गायाभासजन्य होनेसे अप्रमाण ही है अत एव वह धर्मग्राहक हो ही नहीं सकता । - - श्लोकवा० ४.३२ । शास्त्रदी० पृ० १९ । पू० ७७. पं० ११. 'स्वमविज्ञानम्' शान्त्या चार्य के कथनानुसार अनन्त की र्ति खन विज्ञानको मानसप्रत्यक्ष ( प्रमाण ) मानते हैं । अनन्त की र्तिकृत किसी ग्रन्थ में यह बात देखी नही गई अतः कहना कठिन है कि शान्त्या चार्य के कथनका आधार क्या है । 1 आचार्य जिनभद्र ने खप्तज्ञानकी जो चर्चा की है उसमें उन्होंने यह स्वीकार किया है कि वह मानसज्ञान है । इतना ही नहीं किन्तु कुछेक स्वप्नानुभवको सत्य भी माना है । और खमशाखके अनुसार होनेवाले अमुक खामिक दर्शनसे फल भी मिलता है इस बात को भी स्वीकार किया है । किन्तु उनका कहना है कि गमनादिक शारीरिक क्रिया और उसका फल जैसे स्वममें देखे जाते हैं वैसे वस्तुतः होते नहीं हैं । - विशेषा० गा० २२४-२३४ | जैनत • पृ० ३ । आचार्य विद्यानन्द तथा तदनुसारी प्रभा चन्द्र और वादी देवसूरि ने यह स्पष्ट ही स्वीकार किया है कि खम सत्य और असत्य होते हैं । इनमेंसे सत्य खम साक्षात् या परंपरा से स्वपरव्यवसायक होते हैं । इससे स्पष्ट है कि स्वप्न मानस प्रत्यक्ष है । - प्रमाणप० पृ० ५८ । न्यायकु० पृ० १३५ । स्याद्वादर० पृ० १८६ । १. न्यायसूत्र - ५.२.२९ में अप्रतिभाका लक्षण है- "उत्तरस्याप्रतिपत्तिरप्रतिभा" उसीसे प्रतिभात यह लक्षण फलित किया जान पड़ता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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