SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना। ११३ ६७ मतिज्ञानके मेद। आगमोंमें मतिज्ञानको अवमादि चार मेदोंमें या श्रुतनिश्रितादि दो मैदोंमें विभक्त किया गया है। तदनन्तर प्रमेदोंकी संख्या दी गई है। किन्तु वाचकने मतिज्ञानके भेदोंका क्रम कुछ बदल दिया है (१. १४ से) । मतिज्ञानके मौलिक मेदोंको साधनभेदसे वाचकने विभक्त किया है। उनका क्रम निम्न प्रकारसे है । एक बातका ध्यान रहे कि इसमें स्थानांग और नन्दीगत भुतनिःश्रित और अश्रुतनिःश्रित ऐसे भेदोंको स्थान नहीं मिला किन्तु उस प्राचीन परंपराका अनुसरण है जिसमें मतिज्ञानके ऐसे भेद नहीं थे। दूसरा इस बातका भी ध्यान रखना आवश्यक है कि नन्दी आदि शास्त्रोंमें अवग्रहादिके बलादि प्रकार नहीं गिनाये हैं। जबकि तत्त्वार्थमें वे मौजूद हैं । स्थानांगसूत्रके छठे स्थानकमें (सू० ५१०) बहादि अवग्रहादिका परिगणन क्रममेदसे है किन्तु वहाँ तत्त्वार्थगत प्रतिपक्षी भेदोंका उल्लेख नहीं । इससे पता चलता है कि ज्ञानोंके मेदोंमें बहादि अवग्रहादिके भेदकी परंपरा प्राचीन नहीं । (२) मतिज्ञानके दो भेद १ इन्द्रियनिमित्त २ अनिन्द्रियनिमित्त (४) मतिज्ञानके चार मेद १ अवग्रह २ ईहा ३ अवाय ४ धारणा (२८) मतिज्ञानके अट्ठाईस मेद २४ इन्द्रियनिमित्तमतिज्ञानके ५ स्पर्शनेन्द्रियजन्य व्यंजनावग्रह, अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ५रसनेन्द्रियजन्य ५ घाणेन्द्रियजन्य ५ श्रोत्रेन्द्रियजन्य ४ चक्षुरिन्द्रियजन्य अर्थावग्रहादि । ४ अनिन्द्रियजन्य अर्थावग्रहादि (१६८) मतिज्ञानके एकसो अडसठ भेद उक्त अठाईस भेदके प्रत्येकके १ बहु, २ बहुविध, ३ क्षिप्र, ४ अनिश्रित, ५ असंदिग्ध और ६ ध्रुव ये छः मेद करनेसे २८४६=१६८ भेद होते हैं। १ स्थानांगका क्रम है-क्षिप्र, बहु, बहुविध, ध्रुव, भनिश्रित और भसंदिग्ध । तरवार्थका क्रम हैबहु, बहुविध, शिप्र, भनिधित, भसंदिग्ध और ध्रुव । दिगम्बर पाठमें असंदिग्धके स्थानमें अनुक्क है। न्या. प्रस्तावना १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy