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________________ मति-मुतका विवेक। ६४ प्रमाणका लक्षण । वाचकके मतसे सम्यग्ज्ञान ही प्रमाणका लक्षण है । सम्यग्शब्दकी व्याख्यामें उन्होंने कहा है कि जो प्रशस्त अव्यभिचारी या संगत हों वह सम्यग् है । इस लक्षणमें नैयायिकोंके प्रत्यक्ष लक्षणगत अव्यभिचारिविशेषण और उसीको स्पष्ट करनेवाला संगत विशेषण जो आगे जा कर आधविवर्जित या अविसंवादरूपसे प्रसिद्ध हुआ, आये हैं, किन्तु उसमें 'खपरव्यवसाय'ने स्थान नहीं पाया है । वाचकने कार्मण शरीरको ख और अन्य शरीरोंकी उत्पत्तिमें कारण सिद्ध करनेके लिये आदिल्यकी खपरप्रकाशकताका दृष्टान्त दिया है । किन्तु उसी दृष्टान्तके बलसे ज्ञानकी खपरप्रकाशकताकी सिद्धि, जैसे आगेके आचार्योने की है उन्होंने नहीं की। ६५शानोंका सहभाव और व्यापार । वाचक उमाखातिने आगमोंका अवलम्बन लेकर ज्ञानोंके सहभावका विचार किया है (१.३१) । उस प्रसंगमें एक प्रश्न उठाया है कि केवलज्ञानके समय अन्य चार ज्ञान होते हैं कि नहीं । इस विषयको लेकर आचार्योंमें मतभेद था। कुछ आचार्योंका कहना था कि केवलज्ञानके होने पर मत्यादिका अभाव नहीं हो जाता किन्तु अभिभव हो जाता है जैसे सूर्यके उदयसे चन्द्र नक्षत्रादिका अभिमव हो जाता है । इस मतको अमान्य करके वाचकने कह दिया है कि-"क्षयोपशमजानि चत्वारि सानानि पूर्षाणि क्षयादेव केवलम् । तस्मान कैवलिन शेषाणि सामानि भवन्ति ।" तस्वार्थमा० १.३१ । उनके इस अभिप्रायको आगेके समी जैन दार्शनिकोंने मान्य रखा है। एकाधिक ज्ञानोंका व्यापार एक साथ हो सकता है कि नहीं इस प्रश्नका उत्तर दिया है कि प्रथमके मत्यादि चार ज्ञानोंका व्यापार (उपयोग) क्रमशः होता है । किन्तु केवल ज्ञान और केवल दर्शनका व्यापार युगपत् ही होता है । इस विषयको लेकर जैन दार्शनिकोंमें काफी मतमेद हो गया है। ६६ मति-श्रुतका विवेक । नन्दीसूत्रकारका अभिप्राय है कि मति और श्रुत अन्योन्यानुगत-अविभाज्य है अर्थात् जहाँ मतिज्ञान होता है वहाँ श्रुतज्ञान, और जहाँ श्रुतज्ञान होता है वहाँ मतिज्ञान होता ही है। नन्दीकारने किसी आचार्यका मत उद्धृत किया है कि-"मह पुवं जेण सुयं न मई सुयपुब्धिया" (सू० २४) अर्थात् श्रुत ज्ञान तो मतिपूर्वक है किन्तु मति श्रुतपूर्वक नहीं अत एव मति और श्रुतका भेद होना चाहिए । मति और श्रुतज्ञानकी इस भेदरेखाको मानकर वाचकने उसे और भी स्पष्ट किया कि-"उत्पन्नाविनष्टार्थप्राहकं सांप्रतकालविषयं मतिशानं श्रुतक्षानं तु त्रिकालविषयम् , उत्पन्नविनष्टानुत्पन्नार्थग्राहकमिति ।" तस्वार्थमा० १.२०। इसी मेदरेखाको आ० जिनभद्रने और भी पुष्ट की है। स्वार्थभा..। २ तत्वार्थमा० २.१९। ३ तस्वार्थभा० १.३।१ज्ञानविन्दु-परिचय पृ० ५। ५ नन्दीसूत्र २४। ६ "श्रुतं मतिपूर्वम्" तत्वार्थ १.२० । तत्वार्थमा० ..। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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