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प्रस्तावना ।
८९
४ सभाके नियम के विरुद्ध चलना या दूषणका परिहार जात्युत्तरसे करना परिहरणदोष है ।
. ५ अतिव्याप्ति आदि दोष खलक्षण दोष हैं।
६ युक्तिदोष करणदोष कहलाता है ।
७ असिद्धादि हेत्वाभास हेतुदोष हैं ।
८ प्रतिज्ञान्तर करना संक्रमण है या प्रतिवादीके पक्षका स्वीकार करना संक्रमण दोष है । टीकाकारने इसका ऐसा भी अर्थ किया है कि प्रस्तुत प्रमेयकी चर्चाको छोड अप्रस्तुत प्रमेय की चर्चा करना संक्रमणदोष है ।
९ छलादिके द्वारा प्रतिवादीको निगृहीत करना निग्रह दोष है ।
१० पक्षदोषको वस्तुदोष कहा जाता है जैसे प्रत्यक्षनिराकृत आदि ।
इनमें से प्रायः सभी दोषोंका वर्णन न्यायशास्त्रमें स्पष्टरूप से हुआ है । अतएव विशेष विवेचनकी आवश्यकता नहीं ।
९५ विशेषदोष ।
स्थानांगसूत्रमें विशेषके दश प्रकार' गिनाए गये हैं उनका संबन्ध भी दोषसे ही है ऐसा टीकाकारका अभिप्राय है । मूलकारका अभिप्राय क्या है कहा नहीं जा सकता। टीकाकारने उन दस प्रकारके विशेषका जो वर्णन किया है वह इस प्रकार है
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१ वस्तुदोष विशेष से मतलब है पक्षदोषविशेष; जैसे प्रत्यक्षनिराकृत, अनुमाननिराकृत, प्रतीतिनिराकृत, स्ववचननिराकृत और लोकरूढिनिराकृत ।
२ जन्म मर्म कर्म आदि विशेषोंको लेकर किसीको वादमें दूषण देना तज्जातदोषविशेष है । ३ पूर्वोक्त मतिभंगादि जो आठ दोष गिनाए हैं वे भी दोषसामान्यकी अपेक्षासे दोषविशेष होनेसे दोषविशेष कहे जाते हैं।
४ एकार्थिक विशेष अर्थात् पर्यायवाची शब्दोंमें जो कथञ्चिद् मेदविशेष होता है वह; अथवा एक ही अर्थका बोध करानेवाले शब्दविशेष । '
५ कारणविशेष - परिणामिकारण और अपेक्षाकारण ये कारणविशेष हैं । अथवा उपादान, निमित्त, सहकारि, ये कारण विशेष हैं । अथवा कारणदोषविशेष का मतलब है युक्तिदोष । दोष सामान्यकी अपेक्षा से युक्तिदोष यह एक विशेष दोष है ।
६ बस्तुको प्रत्युत्पन्न ही माननेपर जो दोष हो वह प्रत्युत्पन्नदोषविशेष है । जैसे अकृताभ्यागमकृतविप्रणाशादि ।
७ जो दोष सर्वदा हो वह नित्यदोषविशेष है जैसे अभव्य में मिथ्यात्वादि । अथवा वस्तुको सर्वथा नित्य माननेपर जो दोष हो वह नित्यदोषविशेष है ।
१ "इसविधे विसेसे पं० सं० वधु १ तजात दोसे २ त दोसे एगद्वितेति ३ त । कारणे ४ त पपणे ५, दोसे ६ निब्बे ७ हि अट्टमे ८ ॥ १ ॥ अत्तणा ९ उवणीते १० त विसेसेति त ते दस ।"
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स्थानांग सूत्र० ७ ४३ । २ इस दोषसे मूलकारका अभिप्राय पुनरुक्त निग्रहस्थानसे ( न्यायसू० ५. २.१४ ) और चरकसंमत अधिक नामक वाक्यदोषसे ( "यहा सम्बद्धार्थमपि द्विरभिधीयते तत् पुनरुक्तत्वाद् अधिकम्”- विमान० भ० ८. सू. ५४ ) हो तो आश्रर्य नहीं ।
न्या० प्रस्तावना १२
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