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वावदोष |
३ 'वादी सामनीति से विवादाध्यक्षको अपने अनुकूल बनाकर वादका प्रारंभ करता है । या प्रतिवादीको अनुकूल बनाकर वाद शुरू करदेता है और बादमें पड जानेके बाद उसे हराता है । ४ यदि वादी देखता है कि वह प्रतिवादीको हरानेमें सर्वथा समर्थ है तब वह सभापति और प्रतिवादीको अनुकूल बनानेकी अपेक्षा प्रतिकूल ही बनाता है और प्रतिवादी को हराता है।
५ अध्यक्षकी सेवाकरके किया जानेवाला वाद ।
.६ अपने पक्षपाती सभ्योंसे अध्यक्षका मेल कराके या प्रतिवादीके प्रति अध्यक्षको द्वेषी बनाकर किया जानेवाला वाद ।
वादी वाद शुरू होनेके पहले जो प्रपश्च करता है उसके साथ अन्तिम दो विवादों की तुलना की जा सकती है। ऐसे प्रपञ्चका जिक्र चरकमें इन शब्दोंमें है
"प्रागेव तावदिदं कर्तुं यतते सन्धाय परिषदाऽयनभूतमात्मनः प्रकरणमा देशवितव्यम्; यद्वा परस्य भृशदुर्ग स्यात् पक्षम्, अथवा परस्य भृशं विमुखमानयेत् । परिषदि चोपसंहितायामशक्यमस्माभिर्वकम् एबैव ते परिषद् यथेष्टं यथायोग्यं यथाभिप्रायं वाद वादमर्यादां च स्थापयिष्यतीत्युक्त्वा तूष्णीमासीत । विमानस्थान अ० ८. सू० २५ ।
६४ वाददोष ।
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स्थानांगसूत्रमें जो दश दोष गिनाए गए हैं उनका भी संबन्ध वाद कथासे' है अत एव यहाँ उन दोषोंका निर्देश करना आवश्यक है
"दसविहे दोसे पं० तं०
१ तज्जातदोसे, २ मतिभंगदोसे, ३ पसत्थारदोसे, ४ परिहरण दोसे ।
५. सलक्क्षण, ६ कारण, ७ हेउदोसे ८ संकामणं, ९ मिग्गह, १० वत्थुदोसे ॥"
सू० ७४३ ।
१ प्रतिषादिके कुलका निर्देश करके वादमें दूषण देना । या प्रतिवादिकी प्रतिभासे क्षोभ होनेके कारण वादीका चूप हो जाना तज्जातदोष है ।
२ वादप्रसंग प्रतिवादि या वादि का स्मृतिभ्रंश मतिभंग दोष है ।
३ वादप्रसंग में सभ्य या सभापति पक्षपाती होकर जयदान करे या किसीको सहायता दे तो वह प्रशांस्तृदोष है ।
१ चरक सम्भाव संभाषा वीतराग कथाको कहा है। उसका दूसरा नाम अनुलोम संभाषा भी उसमें है । विमानस्थान अ० ८. सू० १६ । प्रस्तुतमें टीकाकार के अनुसार अर्थ किया गया है किन्तु संभव है कि अणुको महत्ता इसका संबन्ध चरकका मनुकोमसन्धायसंभाषाके साथ हो । चरककृत व्याख्या इस प्रकार है
तत्र ज्ञानविज्ञानवचभप्रतिवचनशक्तिसंपजेना कोपनेनानुपस्कृत विद्येनानसूयकेनानुमेयेनातुमयकोषिदेन क्लेशक्षमेण प्रियसंभाषणेन च सह सन्धायसंभाषा विधीयते । तथाविधेन सह कथयन् विषन्धः कथयेत् पृच्छेदपि च विश्वन्धः, पृच्छते चास्मै विश्रब्धाय विशदमर्थ ब्रूयात्, न च निग्रहभयादुद्विजेत निगृह्य चैनं न हृष्येत् न च परेषु विकत्थेत न च मोहादेकान्तग्राही स्यात्, न चाविदितमर्थमनुवर्णयेत् सम्यक चातुनयेनानुनयेत् तत्र चावहितः स्यात् । इति अनुलोम संभाषाविधः ।"
चरककी विभाषाकी स्थानांगगत प्रतिलोम से तुलना की जा सकती है। क्योंकि चरकके अनुसार विगृह्मसंभाषा अपने से हीन या अपनी बराबरी करने वालेके साथ ही करना चाहिए, श्रेष्ठले कभी नहीं । २ "एते हि गुरुशिष्ययोः वादिप्रतिवादिनोर्वा वादाश्रया इव लक्ष्यन्ते” ।
स्थानांगसूत्रटीका० सू० ७४३ ।
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