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प्रस्तावना ।
उसे जैनपरिभाषा में वीतराग कथा और न्यायशास्त्र के अनुसार तस्वबुभुत्सु कथा कहा जा सकता है । इसमें आचारादि विषयमें शिष्यकी शंकाओंका समाधान आचार्य करते हैं। अर्थात् आचारादिके विषयमें जो आक्षेप होते हों उनका समाधान गुरु करता है । किन्तु विक्षेपणी कथामें खसमय और परसमय दोनोंकी चर्चा है। यह कथा गुरु और शिष्यमें हो तब तो वह वीतरागकथा ही है पर यदि जयार्थी प्रतिवादी के साथ कथा हो तब वह वादकथा या विवाद कथामें समाविष्ट है । विक्षेपणीके पहले प्रकारका तात्पर्य यह जान पडता है कि वादी प्रथम अपने पक्षकी स्थापना करके प्रतिवादीके पक्ष में दोषोद्भावन करता है। दूसरा प्रकार प्रतिवादी को लक्ष्य में रखकर किया गया जान पडता है। क्योंकि उसमें परपक्षका निरास और बादमें खपक्षका स्थापन है । अर्थात् वह वादीके पक्षका निराकरण करके अपने पक्षकी स्थापना करता है । तीसरी और चौथी विक्षेपणी कथाका तात्पर्य टीकाकारने जो बताया है उससे यह जान पडता है कि वादी प्रतिवादीके सिद्धान्तमें जितना सम्यगंश हो उसका स्वीकार करके मिथ्यांश का निराकरण करता है और प्रतिवादी भी ऐसा ही करता है।
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निशीथभाष्य के पंचम उद्देशकमें ( पृ० ७६) कथाके मेद बताते हुए कहा है"वादो जप्प वितंडा पहण्णगकहा य णिच्छ्यकहा य ।"
इससे प्रतीत होता है कि टीकाके युगमें अन्यत्र प्रसिद्ध वाद, जल्प और वितण्डाने मी का स्थान पा लिया था । किन्तु इसकी विशेषचर्चा यहाँ प्रस्तुत नहीं । इतना ही प्रस्तुत है कि मूल आगममें इन कथाओंने जल्पादि नामोंसे स्थान नहीं पाया है ।
६३ विवाद |
स्थानांग सूत्रमें विवाद छ प्रकारोंका निर्देश है
"छबिहे विवादे पं० तं० १ असमतित्ता, २ उस्सकहता, ३ अपुलोमचा, ४ पडिलो. महता, ५ महत्ता, ६ मेलइत्ता ।" सू० ५१२.
ये विवाद के प्रकार नहीं है किन्तु वादी और प्रतिवादी विजयके लिये कैसी कैसी तरकीब किया करते थे, इसीका निर्देश मात्र है। टीकाकारने प्रस्तुतमें विवादका अर्थ जल्प किया है सो ठीक ही है। जैसे कि -
१ नियतसमयमें यदि वादीकी वाद करनेके लिये तैयारी न हो तो वह बहाना बनाकर सभास्थान से खिसक जाता है या प्रतिवादीको खिसका देता है जिससे वादमें विलम्ब होनेके कारण उसे तैयारीका समय मिल जाय ।
२ जब वादी अपने जय का अवसर देख लेता है तब वह स्वयं उत्सुकतासे बोलने लगता है या प्रतिवादीको उत्सुक बनाकर वादका शीघ्र प्रारंभ करा देता है।'
१ चरकके इस वाक्यके साथ उपर्युक्त दोनों विवादोंकी तुलना करना चाहिए
" परस्य साहण्यदोषबलमवेक्षितव्यम्, , समवेक्ष्य च यत्रैनं श्रेष्ठं मन्येत मास्य तत्र जल्पं योजयेद् अनाविष्कृतमयोगं कुर्वन् । यत्र त्वेनमवरं मन्येत तत्रैवेनमाशु निगृहीयात् ।" विमानस्थान अ० ८. सू० २१ ।
ऊपर टीकाकारके अनुसार अर्थ किया है किन्तु चरकको देखते हुए यह अर्थ किया जा सकता है कि जिसमें अपनी अयोग्यता हो उस बातको टाल देना और जिसमें सामनेवाला अयोग्य हो उसीमें विवाद करना ।
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