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________________ १२६ टिप्पणानि । [१० ११. ५० ५किया है। उन्हीं का अनुकरण शान्ख्या चार्य ने अन्य जैनाचार्यों की तरह प्रस्तुत कारिका में किया है। पृ० ११. ५० ५. 'सिद्धसेनापत्रितम् -इससे स्पष्ट है कि शान्ख्या चार्य ने सिख सेन के सूत्र के उपर वार्तिक किया है। वे अपने वार्तिके का विशेष नामकरण नहीं करते किन्तु वार्तिक की खोपा इत्ति को उन्हों ने 'विचारक लि का ऐसा नाम दिया है जो गित प्रशस्तिश्लोक से स्पष्ट है। सिद्धसेन का वह सूत्र 'न्या या व तार' नामक द्वात्रिंशिका ही है; क्यों कि वार्तिक का आधारभूत 'प्रमाणं खपराभासि' इत्यादि शास्त्रार्थ संग्राहक जो लोक उन्होंने दिया है वह न्या या व तार की प्रथम कारिका हैं। श्वेताम्बर जैन सम्प्रदाय के आप वैयाकरण श्री बुद्धि सागर के सहोदर भाचार्य जिने वरने 'श्वेताम्बरों के पास अपना प्रमाणलक्षण प्रन्थ नहीं है, वे परोपजीवी है। ऐसे आक्षेप के उत्तर में पूर्वाचार्यों का गौरव दिखाने के लिए आय सूरि की सुकृति न्यायावतार की ही उक्त कारिका को ले कर के 'श्लोकवार्तिक' की रचना की है, और उसे खोपन वृत्ति से विभूषित किया है। __ अतएव आचार्य सिद्धसेन के ही न्याया वतार के ऊपर दो वार्तिकों की रचना हुई है यह स्पष्ट है। इन दोनों वार्तिकों के मी पूर्व में आ० सिद्ध र्षि ने इसी न्या या व तार के ऊपर एक संक्षिप्त टीका लिखी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि थे ताम्बर आचार्यों ने स्पष्टरूप से सिद्ध से नाचार्य की इस छोटीसी कृति का काफी महत्व बढाया है। दिगम्बराचार्यों ने मी खासकर अकलंकने इस का अच्छा उपयोग किया है। न्या या वतार को हम जैनन्याय का आप लक्षणग्रन्थ कह सकते हैं। पृ० ११. पं० ६. 'नमः खताप्रमाणाय-वृत्ति के इस मंगल श्लोक के साप कुमारि ल कृत मंगल तुलना के योग्य है ___ "विपुलवामदेवाय विवेदीदिव्यचक्षुषे"-मीमांसा श्लोकवा० १।। जैनसंमत बाप्त का प्रामाण्य खतः है। मी मां स क का प्रत्येक प्रमाण खतःप्रमाण है। फिर भी उन के मत से आप्तस्थानीय महे घर, मनु आदि अतीन्द्रियार्थ के साक्षादृष्य नहीं हैं। ऐसे पदापों का उन का ज्ञान वेदाश्रित है और वह वेद किसी पुरुष के द्वारा निर्मित या उपदिष्ट नहीं है किन्तु नित्य है-'अपौरुषेय है । वेदखरूप दिव्यचक्षु मिलने पर महेबर का 1. परीक्षा० १.२, प्रमेयक०पू०४, प्रमाणन १.३। २. वहाचा किक बार्तिक ए मया मोकं विएना छते' का०५७। ३. नेवं चितिर्विचारकलिका नामा'। १. प्रमालम का०४०४। ५प्रमालक्ष्मवृतिका०४०५। शोकार्तिकमाचसूरिसुती-प्रमालक्ष्मीकाके मंगलाचरणकी कारिका । देखो 'न्यायावतार की तुलना' का परिवित। .. "खता सर्वप्रमामानां प्रामान्यमिति गम्मवार"-लोकवा०२.४७॥ ९"पहा बरमान न खुर्दोषाविसअपाः" -लोकवा०२.६३।"दलापौरपेयत्वे सिदा व प्रमाणता"-सोकबा.२.९७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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