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________________ १०६ द्रव्य पर्याय और गुणका लक्षण | तीसरा है । प्रथमके तीन भंगोंकी योजना दिखाकर शेष विकल्पोंको शब्दतः उद्धृत नहीं किया किन्तु प्रसिद्धि के कारण विस्तार करना उन्होंने उचित न समझकर - 'देशादेशेन विकल्पयितव्यम्' ऐसा आदेश दे दिया है । बा० उमाखातिने सत्के चार मेद बताये हैं- १ द्रव्यास्तिक, २ मातृका पदास्तिक, ३ उत्पन्नास्तिक, और ४ पर्यायास्तिक । सत्का ऐसा विभाग अन्यत्र देखा नहीं जाता, इन चार भेदों का विशेष विवरण वा० उमाखातिने नहीं किया । टीकाकारने व्याख्यामें मतभेदोंका निर्देश किया हैं । प्रथमके दो मेद द्रव्यनयाश्चिंत हैं और अन्तिम दो पर्यायनयाश्रित हैं । द्रव्यास्तिकसे परमसंग्रह विषयभूत सत् द्रव्य और मातृकापदास्तिकसे सत् द्रव्यके व्यवहारनयाश्रित धर्मास्तिकायादि द्रव्य और उनके मेदप्रमेद अभिप्रेत हैं । प्रत्येक क्षणमें नवनवोत्पन्न वस्तुका रूप उत्पन्नास्तिकसे और प्रत्येक क्षणमें होनेवाला विनाश या मेद पर्यायास्तिकसे अभिप्रेत है । ९३. द्रव्य, पर्याय और गुणका लक्षण । जैन आगमोंमें सत्के लिये द्रव्यशब्दका प्रयोग आता है । किन्तु द्रव्यशब्दके अनेक अर्थ 1 प्रचलित थे' । अतएव स्पष्ट शब्दोंमें जैनसंमत द्रव्यका लक्षण भी करना आवश्यक था । उत्तराध्ययनमें मोक्षमार्गाध्ययन ( २८ ) है । उसमें ज्ञानके विषयभूत द्रव्य, गुण और पर्याय ये तीन पदार्थ बताए गये हैं ( गा० ५) अन्यत्र भी येही तीन पदार्थ गिनाये हैं । किन्तु द्रव्यके लक्षणमें सिर्फ गुणको ही स्थान मिला है - "गुणाणमासओ दव्वं " ( गा० ६ ) । वाचकने गुण और पर्याय दोनोंको द्रव्य लक्षण में स्थान दिया है - " गुणपर्यायवद् द्रव्यम्” ( ५.३७ ) । बाचक के इस लक्षणमें आगमाश्रय तो स्पष्ट है ही किन्तु शाब्दिक रचनामें वैशेषिकके “क्रियागुrea" (१.१.१५ ) इत्यादि द्रव्यलक्षणका प्रभाव मी स्पष्ट है । गुणका लक्षण उत्तराध्ययनमें किया गया है कि "एगदवस्सिया गुणा" ( २८.६ ) । किन्तु वैशेषिकसूत्रमें " द्रव्याश्रय्यगुणवान् ” (१.१.१६ ) इत्यादि है । वाचक अपनी आगमिक परंपराका अवलंबन लेते हुए भी वैशेषिक सूत्रका उपयोग करके गुणका लक्षण करते हैं कि “द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः । " ( ५.४० ) । यहाँ एक विशेष बातका ध्यान रखना जरूरी है । यद्यपि जैन आगमिक परंपराका अवलंबन लेकर ही वाचकने वैशेषिक सूत्रोंका उपयोग किया है। तथापि अपनी परंपराकी दृष्टिसे उनका द्रव्य और गुणका लक्षण जितना निर्दोष और पूर्ण है उतना स्वयं वैशेषिकका मी नहीं है'। बौद्ध मतसे पर्याय या गुण ही सत् माना जाता है और वेदान्तके मतसे पर्यायवियुक्त द्रव्य ही सब माना जाता है। इन्हीं दोनों मतोंका निरास वाचकके द्रव्य और गुणलक्षणोंमें स्पष्ट है। उत्तराध्ययनमें पर्यायका लक्षण है - "लक्खणं पज्जवाणं तु उभभो अस्सिया भवे ।" (२८.६) उभयपदका टीकाकारने जैनपरंपराके हार्दको पकडकरके द्रव्य और गुण अर्थ करके - कहा है कि द्रव्य और गुणाश्रित जो हो वह पर्याय है । किन्तु स्वयं मूलकारने जो पर्यायके विषयमें आगे चलकर यह गाया कही है १ प्रमाणमी • भाषा० पू० ५४ । २ " से किं वं तिनामे दब्बणाने गुणणाने, पावणामे ।" अयुयोगसू० ११४ । ३ देखो, वैशेषिक- उपस्कार १.१.१५, १६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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