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प्रस्तावना।
१०७
"एकत्तं च पुदुक्तं च संखा संठाणमेव च ।
संजोगाय विभागा य पजावाणं तु लक्खणं॥" उससे यह प्रतीत होता है कि मूलकारको उभयपदसे दो या अधिक द्रव्य अभिप्रेत हैं। इसका मूल गुणोंको एकद्रव्याश्रित और अनेकद्रव्याश्रित ऐसे दो प्रकारों में विभक्त करनेवाली किसी प्राचीन परंपरामें हो तो आचर्य नहीं । वैशेषिक परंपरामें भी गुणोंका ऐसा विभाजन देखा जाता है - "संयोगविभागद्वित्वद्विपृथक्त्वादयोऽनेकाश्रिताः।" प्रशस्त० गुणनिरूपण ।
पर्यायका उक्त आगमिक लक्षण सभी प्रकारके पर्यायोंको व्याप्त नहीं करता । किन्तु इतना ही सूचित करता है कि उभय द्रव्याश्रितको गुण कहा नहीं जाता उसे तो पर्याय कहना चाहिए । अत एव वाचकने पर्यायका निर्दोष लक्षण करनेका यत्न किया है । वाचकके "भावान्तरं संज्ञान्तरं च पर्यायः ।" (५.३७) इस वाक्यमें पर्यायके खरूपका निर्देश अर्थ और व्यंजन- शब्द दोनों दृष्टिओंसे हुआ है। किन्तु पर्यायका लक्षण तो उन्होंने किया है कि "तावः परिणामः ।" (५.४१) यहाँ पर्याय के लिये परिणाम शब्दका प्रयोग साभिप्राय है। ___ मैं पहले यह तो बता आया हूं कि आगमोंमें पर्यायके लिये परिणाम शब्दका प्रयोग हुआ है। सांख्य और योगदर्शनमें मी परिणाम शब्द पर्याय अर्थमें ही प्रसिद्ध है । अत एव वाचकने उसी शब्दको लेकर पर्यायका लक्षण प्रथित किया है और उसकी व्याख्यामें कहा है कि, "धर्मादीनां द्रव्याणां यथोक्तानां च गुणानां खभावः स्वतस्वं परिणामः" । अर्थात् धर्मादि द्रव्य
और गुण जिस जिस खभावमें हो अर्थात् जिस जिस रूपमें आत्मलाभ प्राप्त करते हों उनका वह खभाव या खरूप परिणाम है अर्थात् पर्याय है। '
परिणामोंको वाचकने आदिमान् और अनादि ऐसे दो भेदोंमें विभक्त किया है । प्रत्येक दव्यमें दोनों प्रकारके परिणाम होते हैं । जैसे जीवमें जीवत्व, द्रव्यत्व, इत्यादि अनादि परिणाम है और योग और उपयोग आदिमान् परिणाम हैं। उनका यह विश्लेषण जैनागम और इतर दर्शनके मार्मिक अभ्यासका फल है।
६४. गुण और पर्यायसे द्रव्य वियुक्त नहीं।
वा० उमाखातिकृत द्रव्यके लक्षण से यह तो फलित हो ही जाता है कि गुण और पर्यायसे रहित ऐसा कोई द्रव्य हो नहीं सकता । इस बातको उन्होंने अन्यत्र स्पष्ट शब्दोंमें कहा मी है"द्रव्यजीव इति गुणपर्यायवियुक्तः प्रज्ञास्थापितोऽनादिपारिणामिकभावयुक्तो जीव इति ।" तत्वार्थभा० १५ । अर्थात् गुण और पर्यायसे वस्तुतः पृथक् ऐसा द्रव्य नहीं होता किन्तु प्रज्ञासे उसकी कल्पना की जा सकती है । अर्थात् गुण और पर्यायकी विवक्षा न करके द्रव्यको गुण और पर्यायसे पृथक् समझा जा सकता है पर वस्तुतः पृथक् नहीं किया जा सकता । वैशेषिक परिभाषामें कहना हो तो द्रव्य और गुण-पर्याय अयुतसिद्ध हैं।
गुण-पर्यायसे रहित ऐसे द्रव्यकी अनुपलब्धिके कथनसे यह तो स्पष्ट नहीं होता है कि द्रव्यसे रहित गुण-पर्याय उपलब्ध हो सकते हैं या नहीं । इसका स्पष्टीकरण बादके आचार्योंने किया है।
" पुनरसौ पर्वावः इत्याह -तनावः परिणामः ।" तस्वार्थको• ४४.। २ वयार्थ. ५.११. से।
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