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व्यावहारिक और नैश्चयिक नय ।
सामान्यतः यह प्रतीत होता है कि वस्तुकी संख्या तथा भेदाभेदके विचारमें इन दोनों दृष्टिओंका उपयोग किया जा सकता है। (५) व्यावहारिक और नैश्चयिक नय।
प्राचीन कालसे दार्शनिकोंमें यह संघर्ष चला आता है कि वस्तुका कौनसा रूप सत्य हैजो इन्द्रियगम्य है वह या इन्द्रियातीत अर्थात् प्रज्ञागन्य है वह ! उपनिषदों के कुछ ऋषि प्रज्ञावादका आश्रयण करके मानते रहे कि आत्माद्वैत ही परम तत्त्व है उसके अतिरिक्त दृश्यमान सब शब्दमात्र है, विकारमात्र है या नाममात्र है उसमें कोई तथ्य नहीं । किन्तु उस समय भी समी ऋषिओंका यह मत नहीं था। चार्वाक या भौतिकवादी तो इन्द्रियगम्य वस्तुको ही परमतत्त्वरूपसे स्थापित करते रहे । इस प्रकार प्रज्ञा या इन्द्रियके प्राधान्यको लेकर दार्शनिकोंमें विरोध चल रहा था। इसी विरोधका समन्वय भगवान् महावीरने व्यावहारिक और नैश्वयिक नयोंकी कल्पना करके किया है । अपने अपने क्षेत्रमें ये दोनों नय सत्य हैं । व्यावहारिक सभी मिथ्या ही है या नैश्चयिक ही सत्य है ऐसा भगवान् को मान्य नहीं है । भगवान्का अभिप्राय यह है कि व्यवहारमें लोक इन्द्रियोंके दर्शनकी प्रधानतासे वस्तुके स्थूल रूपका निर्णय करते हैं और अपना निर्बाध व्यवहार चलाते हैं अत एव वह लौकिक नय है । पर स्थूल रूपके अलावा वस्तुका सूक्ष्मरूप भी होता है जो इन्द्रियगम्य न होकर केवल प्रज्ञागम्य है । यही प्रज्ञामार्ग नैश्चयिक नय है । इन दोनों नयोंके द्वारा ही वस्तुका संपूर्ण दर्शन होता है।
गौतमने भ० महावीरसे पूछा कि भन्ते ! फाणित- प्रवाही गुड़में कितने वर्ण गन्ध रस और स्पर्श होते हैं ! इसके उत्तरमें उन्होंने कहा कि गौतम ! में इस प्रश्नका उत्तर दो नयोंसे देता हूँ-व्यावहारिकनय की अपेक्षासे तो वह मधुर कहा जाता है । पर नैश्वयिक नयसे वह पांच वर्ण, द्विगन्ध, पांच रस और आठ स्पोंसे युक्त है । भ्रमरके विषयमें भी उनका कथन है कि व्यावहारिक दृष्टिसे भ्रमर कृष्ण है पर नैश्चयिक दृष्टि से उसमें पांचों वर्ण, दोनों गन्ध, पांचों रस और आठों स्पर्श होते है । इसी प्रकार उन्होंने उक्त प्रसंगमें अनेक विषयों को लेकर व्यवहार और निश्चय नयसे उनका विश्लेषण किया है।
आगेके जैनाचार्योंने व्यवहार-निश्चयनयका तत्वज्ञानके अनेक विषयोंमें प्रयोग किया है इतना ही नही बल्कि तत्वज्ञानके अतिरिक्त आचारके अनेक विषयोंमें भी इन नयोंका उपयोग करके विरोधपरिहार किया है।
जब तक उक्त समी प्रकारके नयोंको न समझा जाय तब तक अनेकान्तवादका समर्थन होना कठिन है । अत एव भगवान्ने अपने मन्तव्योंके समर्थन में नाना नयोंका प्रयोग करके शिष्योंको अनेकान्तवाद हृदयंगम करा दिया है । ये ही नय अनेकान्तवादरूपी महाप्रासादकी भूमिकारूप हैं ऐसा कहा जाय तो अनुचित न होगा।
६७. नाम-स्थापना-द्रव्य-भाव । जैन सूत्रोंकी व्याख्याविधि अनुयोगद्वार सूत्रमें बताई गई है । यह विधि कितनी प्राचीन है, इसके विषयमें निश्चित कुछ कहा नहीं जा सकता । किन्तु अनुयोगद्वारके परिशीलनकर्ताको
, Constructive survey of Upanishadio Philosophy p. 227 । छान्दोग्योपनिषद्...। २ भगवती १८.६ ।
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