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________________ १० १६. पं० १३] टिप्पणानि । १४३ कहो । अत एव आश्रयायिभाव या आधाराधेयभाव बौद्ध सम्मत नहीं । इसी लिए बौद्धों ने समवायका खण्डन किया है-प्रमाणवा० १.७१. । धर्मकीर्ति ने कहा है कि समवाय अतीन्द्रिय होनेसे प्रत्यक्षप्राह्य नहीं । समवायके नहीं होनेपर मी अवयवों में अवयविविषयक 'इन तन्तुओंमें पट हैं' इत्यादि प्रतीति खशास्त्रोत वासनाके बलसे होती है, नहीं कि वस्तुकृत । क्यों कि 'गौमें शंग है' ऐसी प्रतीत होनेपर भी शंग अवयव होनेसे समवेत नहीं- आधेय नहीं । और जिस अवयवीको आधेय माना है उसकी आधेयतया प्रतीति होती नहीं । अन्यथा 'शृंगमें गाय है। ऐसी प्रतीति मानना पडेगा जो लोकसिद्ध नहीं । वस्तुतः बात यह है कि इन तन्तुओंमें पट है। ऐसी प्रतीति तो होती नहीं किन्तु 'तन्तुओंसे यह पट बना है ऐसी प्रतीति होती है और इस प्रतीतिके मूलमें आधाराधेयभाव या तन्मूलक समवाय न होकर कार्यकारणभाव ही है । पट तन्तुका कार्य है अर्थात् सहकारिकारणोंसे संस्कृत तन्तु ही पट है । तन्तु और तद्गत पट ऐसी दो भिन्न वस्तुएं और उनको जोडनेवाला समवाय ये तीन पृथग्भूत पदार्थ एक ही कालमें मानने की आवश्यकता नहीं । कार्य और कारण एक कालमें होते ही नहीं अत एव उनके समवायकृत सम्बन्धकी कल्पनाकी आवश्यकता ही नहीं । यदि कार्य और कारण एक कालमें नहीं होते तब पटमें तन्तुकी प्रतीति कैसे होगी ! इस प्रश्न उत्तरमें कहा कि कार्यमें कारणका उपचार करके अथवा एकाध तन्तुका पटसे बुद्धिद्वारा अपोदर करके भी व्यवहर्ता 'पटे तन्तुः' ऐसी प्रतीति कर सकता है । वस्तुतः तन्तव्यतिरिक्त कोई पट पदार्थ नहीं । तन्तुका साहित्य ही अर्थात परस्पर उपकार्योपकारकभावसे व्यवस्थित तन्तु ही पट नामसे व्यवहृत होते हैं । अत एव पट और तन्तु ऐसे दो नामों की भिन्नताके कारण वस्तुमेद का होना अनिवार्य नहीं -प्रमाणवा० २. १४९.-१५३ । तस्वसं० का० ८२३-८६६ । द्रव्य और गुण का भी मेद नहीं है । अत एव 'घटे रूपम्' इस प्रतीति के बलसे मी समवाय की सिद्धि हो नहीं सकती । वस्तुतः रूपादि ही वस्तुएँ हैं और वे नाना प्रकारकी अवस्थाओंमें पायी जाती है। कोई रूप पटात्मक है और कोई रूप घटात्मक है। अत एव पटात्मकलपकी व्यावृत्ति के लिए 'घटे रूपं' ऐसे दो शब्दों का व्यवहार होता है । इसका अर्थ इतना ही है कि घटात्मक रूप है । घट जैसे चक्षुह्य होनेसे रूपात्मक है वैसे रसनग्राह्य होनेसे रसात्मक मी है। अत एव रसात्मक घटकी व्यावृत्ति करने के लिए भी 'घटे रूप' शब्दका प्रयोग करके उसकी चक्षुरिन्द्रियग्राह्यता दिखाना मी दोनों शब्दोंके एकसाथ प्रयोगका फल है। अत एव समवायके अभावमें भी 'घटे रूपं' इत्यादि प्रतीति हो सकती है । समवाय, घट और रूप इन तीनों को भिन्न माननेकी क्या आवश्यकता है- तत्त्वसं० का० ८३२-८३४ । शान्त र क्षित ने संयोगका उदाहरण देकर समवायकी एकता और नित्यता का भी खण्डन किया है-का० ८३५-८६६ । "मर्चट ने कहा है कि समवाय मी यदि स्वतन्त्र पदार्थ हो तो उसका दूसरे द्रव्यादिसे सम्बन्ध, एक और सम्बन्धके बिना कैसे होगा। एक और समवाय मानने पर अनवस्था होती है। उसकी एकतामें भी दोष अर्चटने दिये है-हेतु० टी० पृ०५२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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