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________________ १४२ टिप्पणानि। [१० १६. पं० १पृ० १६.५० १. 'वस्तुखमावैः' दार्शनिकोंमे प्रायः देखा जाता है कि जब वे अपने पक्षका समर्थन दलीलोंसे करनेमें असमर्थ हो जाते हैं तब अखिरमें कह देते हैं "इदमेवं मस्येतत् कस्य पर्यनुयोज्यताम् । अग्निर्वहति नाकाशं कोऽत्र पर्यनुयोज्यताम् ॥" प्रमाणवा० म.पू. ४३ । किन्तु इस वस्तुखभावमूलक उत्तरकी क्या मर्यादा हो सकती है इसका विचार प्रज्ञा करगुप्त ने किया है । उन्होंने कहा है "खभावेऽध्यक्षता सिद्ध परैः पर्यनुयुज्यते। तत्रोत्तरमिदं वाच्यं न रोऽनुपपाता।" वही• पृ. ४३ अर्थात् वस्तु जिस रूपसे प्रत्यक्ष सिद्ध हो उसी रूपके विषयमें कोई यदि पूछे कि वह क्यों है तब ही यह उत्तर देना चाहिए कि जो प्रत्यक्ष सिद्ध हो उसके विषयमें प्रश्न उठाना ठीक नहीं। यदि सर्वत्र यही उत्तर दिया जाय तब तो समी दर्शनवाले अपने अपने पक्षको उसी एक उत्तरसे सिद्ध करके विजयी हो जायंगे- वही पृ० ४४ । आप्तमी० का० १००। पृ० १६. पं० ४. 'प्रमाणजननात्' -तुलना-न्यायकु० पृ० ३० । पृ० १६. पं० ४. 'ईश्वरस' तुलना-न्यायकु० पृ०३२ पं० १७।। पृ० १६. पं० ८. 'अथोत्सर्गो' 'प्रमाणजननात् प्रमाणम्' यह उत्सर्ग है । अर्थात् इस नियमके बलसे प्रमाणका जनक जो मी कर्ता, करण, कर्मादि हो वह सब प्रमाण है । किन्तु 'जो जनक हो करके मी कर्ता है वह प्रमाता कहा जाता है। इस अपवादके बलसे प्रमाता प्रमाण नहीं कहा जा सकता वह प्रमाता ही कहा जायगा क्यों कि अपवाद उत्सर्गका बाधक है। पृ० १६. पं० १३. 'समवायं समवायके खरूपादिके विषयमें जो नानाप्रकारके मतभेद हैं उनका दिग्दर्शन कराना यहां इष्ट है। वैशेषिक और नैयायिक प्रतीतिका शरण लेकर समवाय को पृथक् पदार्थरूप मानते हैं। उनके मतानुसार वह एक नित्य, व्यापक और अमूर्त है। वैशेषिक के मतसे अतीन्द्रिय है अत एव यह अनुमान गम्य है किन्तु नैया यि कों ने देखा कि बौद्धादि सभी दार्शनिक जब समवायका खण्डन करनेके लिए उचत होते हैं तब यही कह देते हैं कि समवायका प्रत्यक्ष तो होता नहीं तो फिर उसका अस्तित्व कैसे मानें ! अत एव उश्योतकर ने विशेषणविशेष्यभाव नामक सन्निकर्षके बलपर उसका प्रत्यक्ष माना है"समवाये च अभावे च विशेषणविशेष्यभावात्" न्यायवा० पृ. ३१ । और बादके नैया यिकों ने उसका समर्थन किया है-मुक्ता० का० ११ । बौद्धों के मतसे अवयव और अवयवी, धर्म और धर्मी, गुण और गुणी ऐसी दो वस्तुएं एककालमें या एक देश में नहीं । एक ही वस्तु है उसे गुण कहो या धर्म कहो या और कुछ ."सर्व चेतवाधिवप्रतीतिबहाद काप्यतेसशासपरिभाषया-न्यायमं०२८५। "दुजम्संविदेवहि. भगवती. वस्तुपगमे मशरणम्" [प्रकरणपं०१०२२]-वैशे० उप० ७.२.२६ । प्रशस्त०पृ०३२४ान्यायवा०पू०५२-५३। स्याद्वादम०का०७ वैशे०७.२.२६ । प्रशस्त पृ० ३२९। ५.प्रमाणवा० २.१५९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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