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________________ टिप्पणानि । [पृ० १६. पं० १३ अद्वैतादिओं के मतसे मी धर्म-धर्मीका, कार्य-कारणका, अवयव अवयवीका मेद नहीं अत एव वे समवाय का खण्डन करें यह खाभाविक ही है । ब्रह्मसूत्र मूलमें समवाय मानने पर अनवस्थादोष होने की बात कही है। और उसका समर्थन शंकराचार्य ने अच्छी तरहसे किया है- २.२.११. । २.२.१७ । १४४ वैशेषिक और नैयाविकों ने द्रव्य, गुण, सामान्य इत्यादिको अत्यन्त मित्र मान करके मी गुणादिको समवाय के कारण द्रव्य परतत्र ही माना । तब शंकराचार्य ने कहा कि वस्तुतः द्रव्यके होने पर ही गुणादि होते हैं और द्रव्यके अभावमें नहीं होते अतएव गुणादिको द्रव्यामक ही मानना चाहिए। द्रव्य और गुणादिका जब तादात्म्य ही सिद्ध है तब समबाय सम्बन्ध की क्या आवश्यकता ! द्रव्य ही संस्थानादिके भेद से अनेक प्रकारके शब्दप्रत्ययका विषय बनता है। जैसे एक ही देवदत्त नानाप्रकारकी अवस्थाओंके कारण नानाप्रकारके पितापुत्रादि शब्दप्रत्ययका गोचर होता है। वैसे एक ही द्रव्य-गुण सामान्य समवाय इत्यादि अनेक रूपसे प्रतीत होता है "तस्मात् द्रव्यात्मकता गुणस्य व्यास्वाता"- शां० ० २.२.२७ । एतेन कर्मसामान्यविशेषसमवायानां द्रव्यात्मकता मैदवादी होने से बौद्धों ने रूपादिको ही वस्तुभूत मानकर उसके द्रव्यरूप आश्रयका निरास किया जब कि अती वेदान्ति यों मे अभेदवादी होनेसे द्रव्यको ही वस्तुभूत मानकर गुणादिरूप आधेय का निरास किया । वस्तुतः दोनों ने आधाराधेयभावका ही निरास करके समवाय का निरास किया है। बोद्ध सभी वस्तुएँ अत्यन्त भिन्न अत एव स्वतन्त्र हैं ऐसा मानकर आधाराधेयभावका निरास करते हैं तब वेदांती संपूर्ण जगत् को एक अखण्ड अद्वितीय रूप मानकर आधाराधेयकी कल्पनाको निरस्त करते हैं " हि कार्यकारणयोः मेदः आश्रिताश्रयभावो वा वेदान्तवादिभिरभ्युपगम्यते । कारयैव संस्थानमार्ग कार्यमित्यभ्युपगमात्" - शां० ब्रह्म० २.२.१७ । बौद्धों ने कार्यकारणभाव मान करके भी कार्य और कारण को समकालमें नहीं माना जत एव उनका आधाराधेयभाव भी नहीं माना । जब कि वेदान्तने कार्यकारणका अभेद माम कर उनके आधाराचेयभावको नहीं माना। अभेदवादीकी दृष्टि से मेदमूलक कार्यकारणभाव ही संभव नहीं । सांख्यों ने भी समवाय का खण्डन किया है।' क्यों कि उनके मतसे भी प्रकृति के विकार का विस्तार चाहे कितना ही हो फिर भी वह है प्रकृस्यात्मक ही, क्यों कि परिणामिनिस्म प्रकृति के परिणाम प्रकृतिले भिन्न नहीं । जब भेद ही नहीं तब समवाय की क्या अवश्यकता ? । कार्य और कारण का भी मेद सांख्य संमत नहीं - "कार्यस्य कारणात्मकत्वात् । न हि कारणाद् भिन्नं कार्य (सांख्मत ० का ० ९) इत्यादि प्रतिज्ञा करके वाचस्पति ने अनेक अनुमानके से कार्य और कारण का अभेद सिद्ध किया है (सांख्यत० का० ९ ) और कहा है कि "तन्तव एव तेन तेन संस्थानभेदेन परिणताः पटो न तन्तुभ्योऽर्थान्तरम्" - (सांख्यत ० १ प्रमाणवा० ममो० १.२३२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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