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arrest जैनदृष्टि |
है ऐसा ही भाव वक्ताको विवक्षित है अत एव वह स्थापना इन्द्र है। यह दूसरा स्थापना निक्षेप है'। इन दोनों निक्षेपोंमें शब्द के व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थकी उपेक्षा की गई है यह स्पष्ट है । द्रव्य निक्षेपका विषय द्रव्य होता है अर्थात् भूत और भाविपर्यायोंमें जो अनुयायी द्रव्य है उसीकी विवक्षासे जो व्यवहार किया जाता है वह द्रव्य निक्षेप है। जैसे कोई जीव इन्द्र होकर मनुष्य हुआ या मरकर मनुष्यसे इन्द्र होगा तब वर्तमान मनुष्य अवस्थाको इन्द्र कहना यह द्रव्य इन्द्र है । इन्द्रभाषापन्न जो जीव द्रव्य था वही अमी मनुष्यरूप है अत एव उसे मनुष्य न कह करके इन्द्र कहा गया है । या भविष्य में इन्द्रभाषापत्तिके योग्य भी यही मनुष्य है ऐसा समजकर भी उसे इन्द्र कहना यह द्रव्य निक्षेप है । वचन व्यवहारमें जो हम कार्यमें कारणका या कारणमें कार्यका उपचार करके जो औपचारिक प्रयोग करते हैं वे सभी द्रव्यान्तर्गत हैं ।
व्युत्पत्तिसिद्ध अर्थ उस शब्दका भाव निक्षेप है । परमैश्वर्य संपन्न जीव भाव इन्द्र है यानि यथार्थ इन्द्र है' |
वस्तुतः जुदे जुदे शब्दव्यवहारोंके कारण जो विरोधी अर्थ उपस्थित होते हैं उन सभी अकी विवक्षाको समझना और अपने इष्ट अर्थका बोध करमा-कराना, इसीके लिये ही भगवान्ने निक्षेपोंकी योजना की है यह स्पष्ट है।
जैनदार्शनिकोंने इस निक्षेपतस्त्वको भी नयोंकी तरह विकसित किया है। और इन निक्षेपोंके सहारे शब्दाद्वैतवाद आदि विरोधी वादका समन्वय करनेका प्रथम मी किया है।
[२] प्रमाणतस्व ।
६१. शाम चर्चाकी जैनदृष्टि ।
जैन आगमोंमें अद्वैतवादिओं की तरह जगत्को वस्तु और अवस्तु - मायामें तो विभक्त नहीं किया है किन्तु संसारकी प्रत्येक वस्तुमें स्वभाव और विभाव सन्निहित है ऐसा प्रतिपादित किया है । वस्तुका परानपेक्ष जो रूप है वह स्वभाव हैं, जैसे, आत्माका चैतन्य, ज्ञान, सुख आदि, और पुद्गलकी जडता। किसी भी कालमें आत्मा ज्ञान या चेतना रहित नहीं और पुद्गलमें जडता मी कालाबाधित है । वस्तुका जो परसापेक्षरूप है वह विभाव है जैसे आत्माका मनुष्यत्व, देव आदि और पुलका शरीररूप परिणाम । मनुष्यको हम न तो कोरा आत्मा ही कह सकते हैं और न कोरा पुद्गल ही । इसी तरह शरीर भी सिर्फ पुद्गलरूप नहीं कहा जा सकता । आत्माका मनुष्यरूप होना परसापेक्ष है और पुगलका शरीररूप होना भी परसापेक्ष है । अतः आत्माका मनुष्यरूप और पुनलका शरीररूप ये दोनों क्रमशः आत्मा और पुलके विभाग हैं ।
१ "वत्तु तदर्थनियुकं तदभिप्रायेण यथा तस्करणि । लेप्यादिकर्म तद् स्थापनेति क्रियतेऽरूपकालं च ॥" अनु० टी० १२ । २ "भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु पहोके । तत् हव्यं वरवः सचेतनाचेतनं कथितम् ॥" अनु० टी० पृ० १४ । ३ "भावो विवक्षितक्रियाऽनुभूतियुको हि वै समायातः । सर्वत्रैरिन्द्रादिवदिन्यनादि क्रियानुभवात् ॥" अनु० टी० पृ० २८ ।
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