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________________ प्रस्तावना। खभाव ही सत्य है और विभाव मिथ्या है ऐसा जैनोंने कभी प्रतिपादित नहीं किया । क्योंकि उनके मतमें निकालाबाधित यस्तु ही सत्य है ऐसा एकान्त नहीं । प्रत्येक वस्तु, फिर वह अपने खभावमें ही स्थित हो वा विभावमें वर्तमान हो, सत्य है । हाँ, तद्विषयक हमारा ज्ञान मिथ्या हो सकता है, लेकिन वह भी तब, जब हम खभावको विभाव समझें या विभावको स्वभाव यानी तत् में अतत् का ज्ञान होने पर ज्ञान में मिथ्यात्वकी संभावना है। विज्ञानवादि बौद्धोंने प्रत्यक्ष ज्ञानको वस्तुप्राहक और साक्षात्कारात्मक तथा इतर ज्ञानोंको अवस्तुपाहक, प्रामक, अस्पष्ट और असाक्षात्कारात्मक माना है । जैनारामोंमें इन्द्रियनिरपेक्ष ऐसे मात्र आत्मसापेक्ष ज्ञानको ही साक्षात्कारात्मक प्रत्यक्ष कहा गया है तथा इन्द्रियसापेक्ष ज्ञानोंको असाक्षात्कारात्मक और परोक्ष माना गया है । जैनदृष्टि से प्रत्यक्ष ही वस्तुके खभाव और विभावका साक्षात्कार कर सकता है और वस्तुका विभावसे पृथक ऐसा जो खभाव है उसका स्पष्ट पता लगा सकता है । इन्द्रियसापेक्ष ज्ञानमें यह कभी संभव नहीं कि वह किसी वस्तुका साक्षात्कार कर सके और किसी वस्तुके खभावको विभावसे पृथक् कर उसको स्पष्ट जान सके । लेकिन इसका मतलब जैन मतानुसार यह कभी नहीं कि इन्द्रियसापेक्ष ज्ञान भ्रम है । विज्ञानवादि बौद्धोंने तो परोक्ष ज्ञानोंको अवस्तुप्राहक होनेसे भ्रम ही कहा है किन्तु जैनाचार्योंने वैसा नहीं माना। क्योंकि उनके मतमें विभाव भी वस्तुका परिणाम है अत एव वह भी वस्तुका एक रूप है । अतः उसका ग्राहकज्ञान भ्रम नहीं कहा जा सकता । वह अस्पष्ट हो सकता है, साक्षात्काररूप न भी हो तब भी वस्तुस्पर्शी तो है ही। भगवान् महावीरसे लेकर उ० यशोविजयजी तकके साहित्यको देखनेसे यही पता लगता है कि जैनोंकी ज्ञानचर्चामें उपर्युक्त मुख्य सिद्धान्तकी कभी उपेक्षा नहीं की गई बल्कि यों कहना चाहिए कि ज्ञानकी जो कुछ चर्चा हुई है वह उसी मध्यबिन्दुके आसपास ही हुई है । उपर्युक्त सिद्धान्तका प्रतिपादन प्राचीन कालके आगमोंसे लेकर अबतकके जैन साहित्यमें अविच्छिन्न रूपसे होता चला आया है। ६२. आगममें ज्ञानचर्चाके विकासकी भूमिकाएँपंचज्ञानची जैन परंपरामें भगवान् महावीरसे भी पहले होती थी इसका प्रमाण राजप्रश्नीय सूत्रमें है । भगवान् महावीरने अपने मुंहसे अतीतमें होनेवाले केशीकुमार श्रमणका वृत्तान्त राजप्रश्नीयमें कहा है । शास्त्रकारने केशी कुमारके मुखसे निम्न वाक्य कहलवाया है "एवं खुपएसी अम्हं समणाणं निग्गंथाणं पंचविहे नाणे पण्णत्ते-तंजहा आभिणिबोहि यनाणे सुयनाणे ओहिणाणे मणपजवणाणे केवलणाणे" (सू० १६५) इत्यादि इस वाक्यसे स्पष्ट फलित यह होता है कि कमसे कम उक्त आगमके संकलनकर्ताके मतसे भगवान् महावीरसे पहले भी श्रमणोंमें पांच ज्ञानों की मान्यता थी। उनकी यह मान्यता निर्मूल भी नहीं । उत्तराध्ययनके २३ वें अध्ययनसे स्पष्ट है कि भगवान् महावीरने आचारविषयक कुछ संशोधनोंके अतिरिक्त पार्श्वनाथके तत्त्वज्ञानमें विशेष संशोधन नहीं किया । यदि भगवान् महावीरने तत्त्वज्ञानमें भी कुछ नई कल्पनाएँ की होती तो उनका निरूपण भी उत्तराध्ययनमें होता। न्या. प्रस्तावना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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