SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मानचर्चाके विकासको भूमिकाएँ। भागोंमें पांचज्ञानोंके मेदोपमेदोंका जो वर्णन है, कर्मशाल ज्ञानावरणीयके जो मैदोपभेदोंका वर्णन है, जीवमार्गणाओंमें पांच ज्ञानोंकी जो घटना वर्णित है, तथा पूर्वगतमें ज्ञानोंका खता निरूपण करनेवाला जो मनप्रवाद पूर्व है इन सबसे यही फलित होता है कि पंचज्ञानकी चर्चा यह भगवान महावीरने नई नहीं शुरू की है किन्तु पूर्वपरंपरासे जो चली आती थी उसका ही स्वीकार कर उसे आगे बढ़ाया है। इस शान चर्चाके विकासक्रमको आगमके ही आधार पर देखना हो तो उसकी तीन भूमिकाएँ हमें स्पष्ट दीखती हैं (१) प्रथम भूमिका तो वह है जिसमें ज्ञानोंको पांच मैदोंमें ही विभक्त किया गया है। (२) द्वितीय भूमिकामें ज्ञानोंको प्रत्यक्ष और परोक्ष ऐसे दो मेदों में विभक्त करके पांच शानोंमेसे मति और भुतको परोक्षान्तर्गत और शेष अवधि, मनःपर्यय और केवलको प्रत्यक्षमें अन्तर्गत किया गया है । इस भूमिकामें लोकानुसरण करके इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षको अर्थात् इन्द्रियजमतिको प्रत्यक्षमें स्थान नहीं दिया है किन्तु जैन सिद्धान्तके अनुसार जो ज्ञान भात्ममात्रसापेक्ष है उन्हें ही प्रत्यक्षमें खान दिया गया है । और जो ज्ञान आत्माके अतिरिक्त अन्य साधनोंकी मी अपेक्षा रखते हैं उनका समावेश परोक्षमें किया गया है। यही कारण है कि इन्द्रियजन्य ज्ञान जिसे जैनेतर समी दार्शनिकोंने प्रत्यक्ष कहा है प्रत्यक्षान्तर्गत नहीं माना गया। (३) तृतीयभूमिकामें इन्द्रियजन्य ज्ञानोंको प्रत्यक्ष और परोक्ष उभयमें स्थान दिया गया है। इस भूमिकामें लोकानुसरण स्पष्ट है। (१) प्रथम भूमिकाके अनुसार ज्ञानका वर्णन हमें भगवती सूत्रमें (८८.२.३१७) मिलता है। उसके अनुसार ज्ञानोंको निम्न सूचित नकशेके अनुसार विभक्त किया गया है १ आभिनिबोधिक २ भुत ३ अवधि १ मनःपर्यय ५ केवल १ अवग्रह २ ईहा ३ अवाय ४ धारणा सूत्रकारने आगेका वर्णन राजप्रश्नीयसे पूर्ण कर लेनेकी सूचना दी है । और राजप्रश्नीयको (सू० १६५) देखनेपर मालूम होता है कि उसमें पूर्वोक्त नकशेमें सूचित कपनके अलावा अवग्रहके दो भेदोंका कथन करके शेषकी पूर्ति नन्दीसूत्रसे कर लेने की सूचना दी है। सार यही है कि शेष वर्णन नन्दी के अनुसार होते हुए भी फर्क यह है कि इस भूमिकामें नन्दीसूत्रके प्रारंभ में कथित प्रत्यक्ष और परोक्ष भेदोंका जिक्र नहीं है । और दूसरी बात यह भी है कि नन्दीकी तरह इसमें भाभिनिबोधके श्रुतनिःसृत और अश्रुतनिःसृत ऐसे दो मेदोंको भी स्थान नहीं है । इसीसे कहा जा सकता है कि यह वर्णन प्राचीन भूमिकाका है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy