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टिप्पणानि।
[१० १४. पं० ९नहीं । संयुक्तप्रतीतिका विषय संयोगिमात्र है अन्य नहीं । प्रत्यासम उत्पन ऐसी वस्तुएं ही संयोगि कही जाती हैं । और वेही संयुक्तप्रत्यय की आलम्बन हैं । उनके अतिरिक्त संयोगनामक कोई और पदार्थ नहीं है
"प्रत्यासषतयोत्पञ्चास्तत्र संयोगिनः परम् । संयुक्तप्रत्ययालम्म्या न संयोगस्ततः परम् ॥
पुरास्थिताः यथा तेऽर्थाः किं संयोगस्तथा स्थितः ॥" प्रमाणवा० म०पू० ११६ । विप्रकृष्ट अवस्थामें जो वस्तुएं दिखती हैं वेही सन्निकृष्ट अवस्थामें भी दिखती हैं । उनका संयोग तो दिखता नहीं । किन्तु उनकी वैसी अवस्थाका बोध संयोग शम्दसे होता है । अत एव यह विकल्प ज्ञानका विषय होनेके कारण वस्तुभूत नहीं । पदार्थका मेद, शब्दज्ञानकी विलक्षणतासे नहीं किन्तु प्रत्यक्षज्ञानके भेदसे होता है । अर्थात् जहां प्रत्यक्षप्रतीति विलक्षण है वहीं वस्तुमेद है । शब्दजन्य प्रतीतिके मेदसे वस्तुमेद आवश्यक नहीं' । अनादिवासनाके कारण नाना प्रकारकी विकल्पात्मिका बुद्धि उत्पन्न होती रहती है । अत एव विकल्पबुद्धिके आधार पर बाह्य वस्तुकी व्यवस्था करना बुद्धिमानी नहीं है । बाह्य वस्तुकी प्रतिष्ठा तो प्रत्यक्षप्रतीतिके ऊपर निर्भर है।
अत एव जैसे पंक्तिमें दीर्घत्वका या संख्याका प्रत्यय होनेपर मी उसमें वास्तविक दीर्घत्व या संख्या नै या यि क न मानकर औपचारिक मानते हैं। वैसे ही सर्वत्र विकल्पमेदसे वस्तुभेद न मानकरके औपचारिक ही मानना संगत है । अत एव संयोगप्रत्यय होनेपर भी पृथग्भूत संयोगका अस्तित्व मानना ठीक नहीं।
बौद्धों ने जैसे संयोगके पृथग्भाव का निराकरण किया है वैसे ही द्रव्यसे पृथग्भूत समस्तगुणोंका निराकरण भी उनको इष्ट है । अत एव उनके मतसे गुण-गुणीका भेद नहीं है । धर्म-धर्मीका भेद नहीं है । एक ही शब्द जिसप्रकार किसी एक धर्मका वाचक है वैसे ही धर्मीका भी वाचक है और धर्मधर्मीके समुदायका मी वाचक है । अत एव शब्दके बल पर वस्तुव्यवस्था करना ठीक नहीं।
संयोगके विषयमें अद्वैत वा दी वेदान्ति ओं का मत बौद्धों के समान है । फर्क इतना ही है कि उन्होंने संयोगनामक गुण को द्रव्यात्मक माना और बौद्धों ने द्रव्य जैसी कोई स्थिर वस्तु तो मानी नहीं अत एव उसे रूपादि क्षणिक वस्त्वात्मक माना । बौद्धों की तरह वेदान्ति ओंने भी संयोग या समवाय जैसे किसी सम्बन्धका सम्बन्धिओंसे पृथगस्तिस्व माना ही नहीं
१. "संबोगिन एवं पादया केवळाः न वा पर संयोगः उपकम्धिगोचर संपुछ इति संबोगिन एवं प्रवीतिः संयुक्तशब्दस्यमापरमन्त्रालम्बनम्" प्रमाणवा० अ० १० ११६। २." शवशामखमण्यमात्रादेव पदार्थ मेदोऽपि तु प्रत्यक्षलक्षणज्ञानमेवार ।" वही पू० ११६ । 1."विकश्पिका हिडिरनादिवासनासामथ्यात् उपजायमाना तथा तथा पूबते । ततो मार्थवरवं प्रतिहाँ समवे"-वही ११६। १. प्रमाणवा०१.९५। तत्त्वसं०का०६५०। ५. कर्ण० पृ०२१७ ॥ ..प्रमाणबा०१.९९-१०२।... "वसाव्यात्मकदा गुणन"-शां० प्रा० २.२.१७।
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