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________________ पृ० १५. पं० १] टिप्पणानि । १३९ "नापि संयोगस्य समवायस्य वा सम्बन्धस्य सम्बन्धिव्यतिरेकेणास्तित्वे किञ्चित् प्रमाणमस्ति ।" शां० ब्रह्म० २.२.१७ । बौद्ध मतका आश्रय लेकरके शान्ख्या चार्य ने नैयायिक संमत संयोग का विस्तारसे खण्डन किया है। और अंतमें कह दिया कि संयोग जैसी कोई पृथग्भूत वस्तु नहीं है । किन्तु द्रव्यकी एक अवस्थाविशेष ही, द्रव्यका एक पर्यायमात्र ही संयोग है - पृ० १५. पं० ६,७ । जैन के मत से द्रव्य और पर्याय का मेदामेद है । जिस प्रकार द्रव्य वास्तविक है वैसे उसके पर्याय भी वास्तविक हैं । अत एव वे बौद्धों की तरह संयोग को सिर्फ वासनामूलक कह करके उस का निराकरण नहीं कर सकते । जहां तक संयोगके एकान्तरूपसे पृथगस्तित्वका सवाल है वहां तक तो नैयायिकों का निराकरण करने के लिए जैन और बौद्ध समाम रूपसे कटिबद्ध हैं किन्तु उस की व्यवस्थाके प्रश्न पर दोनोंमें मौलिक मतभेद है । बौद्ध उसे वासनामूलक कह देता है। जैन वासनामूलक कह करके भी उस वासनाका भी कुछ न कुछ मूल खोजता है । और उसे वस्तुकी पर्याय मान करके वस्तुभूत ही सिद्ध करता है और बौद्ध वासनामूलक कह करके अवस्तुभूत कहता है यही दोनों में मेद हैस्याद्वादर० पृ० ९३२ से । व्यावृत्तिभेदका मूल मी जैन दृष्टि से कोरी कल्पना नहीं किन्तु वस्तुका तथाभूत पर्याय है । अत एव व्यावृत्तिके भेदसे मी वस्तुमेदकी व्यवस्था हो सकती है। पार्थसारथी मिश्रने एक संयोग को नैयायिक की तरह अनेकाश्रित नहीं माना । उन्होंने कहा है कि जैसे सादृश्य प्रतिव्यक्ति भिन्न है वैसे ही संयोग मी प्रतिव्यक्ति -भिन्न है। अर्थात् मी मां स क के मतसे दोनों संयोगिव्यक्तिओं में पृथक् पृथक् संयोग रहता है । किसी एक वस्तुमें संयोगकी वृति और प्रतीति अन्य सापेक्ष है । - संयोगका प्रस्तुत वर्णन जैनों से मिलता है। जैनों ने भी प्रत्येक संयुक्त वस्तुमें भिन्न भिन्न पर्यायरूप संयोग माना है। वस्तुके उस पर्यायकी अन्यसापेक्षता भी जैन सम्मत है । पृ० १४. पं० ९. 'न सभिहित' तुलना - "न जलु संयोगोऽपरः प्रतिभासते संयोगिव्यतिरिक्तः " - प्रमाणवा० अ० पृ० ११६ । तत्त्वसं० का० ६६६ । कर्ण० पृ० २१७ । “न च निरन्तरोत्पलवस्तुद्वयप्रतिभासकालेऽभ्यक्ष प्रतिपतौ तद्व्यतिरेकेणापरः संयोगः”सन्मति टी० पृ० ११४. पं० १ । न्यायकु० पृ० २७७ । प्रमेयक० पृ० ५९४ । - पृ० १४. पं० २४. 'क्षितिबीज' संयोगसाधक प्रस्तुत अनुमान उ पो त क रने दिया हैन्यायवा० पृ० २१९. पं० १४ । उसीका अनुवाद करके खण्डम तत्त्वसंग्रहमें (का० ६५४-६५६, ६६४) शान्तरक्षितने और प्रमाणवार्तिक की खोपटीकाकी व्याख्यामें कर्णकं गोमी ने किया है - पृ० २१७ । सम्मलिटी का कार ( सम्मति० टी० पृ० ११४. पं० ६ पृ० ६७९. पं० ५) अभय देव, और प्रभा चन्द्रा चार्य (प्रमेयक० पृ० ६१३. पं० २४ ) उन्हीका अनुसरण करते हैं । पृ० १५. पं० १. 'अनवस्था' - तुलना "अथ संयोगशक्तिव्यतिरेकेण न कार्योत्पादने कारणकलापः प्रवर्तते इति निर्बन्धस्तर्हि संयोगशफ्स्युत्पादनेऽप्यपरसंयोगशक्तिव्यति १. शाखादी० पृ० १०३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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