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[पृ. ११.५०रेकेण नासी प्रवर्तत इत्वपरा संयोगशक्तिः परिकल्पनीया, स्त्राप्यपरेखावला-" सन्मतिटी० १० ११४. पं. ३३।। ।' पृ० १५. पं० २. 'कार्यण' तुम्मा-"तथा संयोगमन्तरेण कार्यात्मकत्वमेष किनेष्यते" कर्ण० पृ० २६७ ।। - पृ० १५. पं० ६. 'योग्यदेशादि तुलना- "न व विशिष्टाषस्थाव्यतिरेण पूर्षिव्यादयः संयोगशक्तिमपि निर्वर्तयितुं क्षमाः । तस्मादेकसामध्यधीन विशिष्टोत्पत्तिमस्यदार्थव्यतिरेकेण नापसंयोगः।" सन्मति० टी० पृ० १५४. पं० ३७,४०।
पृ० १५. ५०. ९. 'प्रमाणत्वं न' - प्रत्यक्षकी व्याख्या करते हुए वात्स्यायन ने कहा है कि इन्द्रियोंकी वृत्ति-व्यापार प्रत्यक्ष है। वृत्ति का अर्थ उन्होंने सन्निकर्ष और ज्ञान किया है। अर्थात् उनके मतसे ज्ञान अथवा सन्निकर्ष प्रत्यक्ष प्रमाण है । जब सन्निकर्षको प्रमाण मानना हो तब ज्ञान प्रमिति है और जब हानोपादानोपेक्षा बुद्धिको फल मानना हो तब ज्ञान प्रमाण है-न्यायभा० १.१.३ । वार्तिककारने भी इसी मतका समर्थन करके सभिकर्ष को ही प्रत्यक्ष प्रमाण माननेवाले किसी का खण्डन किया है-न्यायवा० पृ० २९ । तात्पर्य० पृ० १०५।
किन्तु जैन-बौओं ने तो सनिकर्षक प्रामाण्य का मी खण्डन किया है । क्योंकि उन दोनों के मतसे ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है अज्ञानरूम समिकर्ष नहीं।
नै या यिकों ने प्रमाण को करण कहा है और करण को साधकतमै । साधकतम यह है जिसके होनेपर कार्य निष्पत्ति होती है और जिसके नहीं होनेपर कार्य निष्पत्ति नहीं होती। यदि समिकर्ष प्रमाण हो तब उसके होनेपर प्रत्यक्ष ज्ञान अवश्य होना चाहिए । किन्तु समिकर्ष के होने पर मी प्रमाणभूतज्ञान उत्पन्न न होकर संशयादि उत्पन्न होते है । और आकाशादिके साथ चक्षुका समिकर्ष होनेपर मी तद्विषयक ज्ञान उत्पन होता नहीं । तथा सन्निकर्ष के अभावमें अर्थात् विशेष्यके साथ समिकर्ष न होते हुए भी विशेषणहानसे विशेष्य विषयक प्रत्यक्षप्रमिति होती है।
आपकान के को साधकतम मानना चाहिए क्योंकि उसके होनेपर बव्यवहितोतरक्षणमें प्रमिति होती है।
ज्ञान ही सर्व पुरुषार्थकी सिद्धि में उपयोगी है। अत एव यदि पुरुषार्थकी सिद्धिक लिए प्रमाण का अन्वेषण हो तब तो प्रमाण को ज्ञानरूप ही मानना चाहिए क्यों कि वहीं हिताहितार्यकी प्राप्तिपरिहारमै समर्थ है, जडरूप सन्निकर्षादि नहीं। - सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष प्रमाका करण माननेके बारेमें दिमाग ने आपत्ति की हैं। उनका कहना है कि यदि प्रत्यक्ष ज्ञान इन्द्रियसन्निकर्ष जन्य हो तब चक्षुसे जो विप्रकृष्टसान्तर वस्तुका
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१.प्रमाणवा० २.३१६ । प्रमाणवा० अ० मु० पू० ८। २. न्यायमा० ११.३। 1. "साधकतमं प्रमाणं" न्यायवा० पू० ६ । १. "भावामायोखाता" न्यायवा०पू०६। ५. वस्वाचनलो० पू० १३८ । अएस०पू० २७६ । प्रमेयक० १४ । न्यायकु०पू० २९ । यावर ५। ६. न्यापरि० पू०२। लपी० स० ३ । परीक्षा० १.२ ।
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