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________________ १. १४.०९] हिणणालि। उसे तो बादी देवसूरि ने स्वादादरमा करमें किया है (पृ. ३०-३१) । उनका कहना कि लक्ष्य और क्षणका सादाम्य है सही किन्तु बौद्धोंकी तख यह ऐकान्तिक नहीं कश्चित् तादाम्य है । अत एव वह किसी रूपसे प्रसिद्ध और किसी अपसे भमसिड हो सकता है। वादी देवसूरि का यह विवेचन विधामद की परिनिष्ठित शुद्धिका फल हैतत्वार्थश्ली० पृ० ३१८। पृ० १४. पं० २. तादात्म्यात्-तुलना-"म तम्मन्तव्यम्-कल्पनापोडाभातस्पं बेवमसि किमन्यत् प्रत्यक्षात मानल्य रुपमवधियते पत् मलसरायवाच्यं सदनुतेति। पलादिन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायथेषु साक्षात्कारियानं प्रवाशदवाच्यं सर्वे लिखम्, तदनुवादेन कल्पनापोडामातत्वविधिः।" न्यायबि० टी० पृ० १२ । स्थानावर पृ० ३०-३१। पृ० ११. पं० ५. 'सनिकादि' न्यायाब तारकी प्रमम कारिकामें शानको प्रमाण कहा है। उस ज्ञानपदका व्यावर्त्य क्या है इसकी चर्चा प्रस्तुत कारिकाके पूर्वार्धमें की गई है। तिमें सन्निकर्ष और सामग्रीके एकदेशरूप चक्षुरादि, अज्ञानरूप होनेके कारण, प्रमाण नहीं है, ऐसा प्रतिपादन किया गया है। सिद्धर्षि ने ज्ञानपदका व्यावर्य नै या पि का दि सम्मत सन्निकर्ष है ऐसा कहा हैन्याया० टी० पृ० १३। प्रमालक्ष्म कारके मतसे चक्षुरादिका व्यवच्छेद प्रमाणपदसे ही होता है-१०१। और ज्ञानपदसे निराकार बोधरूप दर्शनकी व्यावृत्ति होती है-पृ० २। पृ० ११. पं० ९. 'संयोग नैयायिक और शेषिकके मतसे न्याश्रित संयोग गुण मामक पदार्थ है । वह एक होकर मी अनेक च्याश्रित है । गुण और गुणीका सम्बन्ध समवाय नामक पदार्थ के कारण होता है। अत एव द्रव्य, गुण और समवाय ये तीनो खतम वस्तुभूत पदार्थ हैं। बौद्ध के मतसे संयोग वस्तुभूत खता पदार्थ नहीं । नै या पिक-वैशेषिक संयोग को संयुक्तप्रमयका नियामक मामते हैं। बौद्धों ने कहा कि उस प्रमयके नियामकरूपसे संयोग पदार्थकी कल्पना करना आवश्यक नहीं । विजातीयव्यापिके मेदसे एक ही वस्तु नाना प्रकारकी कल्पनाका विषय बन सकती है। अत एव एक ही वस्तुको अनीलम्मावृल्या हल नीळकल्पनागोचर और असंयुकन्यारत्या संयुक्तकल्पनागोचर कर सकते। जैसे 'यह एक पंकि है। यह वीर्ष पंकि लादि प्रत्यय होनेपर मी नैयायिकोंने पंकिगत एकत्व या दीर्घत्व नहीं मामा क्योंकि पकि संयोग होनेके कारण गुण और गुणमें गुण रहता नहीं । वैसे ही हम बौद्ध भी नीलादि बाम वस्तुके अतिरिक तगत संयोगनामक गुण की कल्पना आवश्यक नहीं समझते । विजातीयव्याचिकेबलसे तन्द प्रलय उपपल हो जाता है। अत एव संयोगि ऐसे रूपादि मानना चाहिए तातिरिक्त सेयोगकी आवश्यकता १.प्रमाणवा० १.१३। १.ममाता-mdI..प्रमाणवाw.. न्या.१८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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