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________________ टिप्पणानि । [पृ. १३. पं० १३ पृ० १३. पं० १३. 'प्रमाणभूतम्' तुलना-"तज्ञान प्रमाण भगवान्" प्रमाणवा० १॥ "एवंभूतं भगवन्तं प्रणम्य प्रमाणसिद्धिर्विधीयते । प्रमाणाधीनो हि प्रमेयाधिगमः । भगवानेव च प्रमाणम्, प्रमाणलक्षणसङ्गाबाद" -प्रमाणवा० अ० पृ० १ और पृ० ३७ । "मा अन्तरजवहिरजानम्तमानमातिहार्यादिश्रीर, अण्यते शब्दयते येनार्थोऽसावाणः शब्द:,माच आणखमाणी, प्रकृयो महेश्वराचसम्भाविनी माणी यस्यासी प्रमाणो भगवान सर्वसोरटेष्टाविरुवाकच, तसादुकप्रकारात मसंसिद्धिर्भवति" प्रमेयक० पृ० ७. पं० १२ । पृ० १३. पं० १४. 'सिद्धसेन' तुलना-"माचार्यों दुषमारसमाश्यामासमयोभूतसमस्तजनताहादसंतमसविध्वंसकत्वेन अवाप्तयथार्थाभिधानः सिद्धसेनदिवाकरः" सन्मति० टी० पृ० १. पं० १६ । पृ० १३. पं० २०. 'शास्त्रार्थसंग्रह' तुलना- "प्रमाणे इति संग्रह"-लघी० ३ । प्रमाणसं० २। “इति शालार्थस्य संग्रहः" प्रमाणसं० पृ. २१ "अक्षुण्णसफलशालार्थसंग्रहसमर्थमादिश्लोकमाह" -न्यायकु० पृ० २० । प्रमेयक० पृ० २।। न्या या व तार की प्रथम कारिकामें संपूर्ण शास्त्रके विषयका संग्रह होनेसे उसीको उद्धृत करके वार्तिककारने उसे 'शास्त्रार्थसंग्रह' कहा है । प्रमाण लक्ष्म में भी ऐसा ही उसके कर्ताने किया है। पृ० १३. पं० ३०. 'तत्र विधिवाक्ये शान्त्या चार्य ने धर्मोत्तर (न्यायबि० टी० पृ० ११-१२) के समान लक्षणका विधान और लक्ष्यका अनुवाद माना है । किन्तु सिद्धर्षि का कहना है कि अधिकारी मेदसे लक्षणका अनुवाद करके लक्ष्यका भी विधान हो सकता है । किसीको प्रमाणत्व अप्रसिद्ध हो सकता है और किसी को खपरव्यवसायित्व । यही बात बादी देवसूरि ने भी कही है।-न्याया० टी० पृ० १० । स्याद्वादर० पृ० २० ।। प्रमाण लक्ष्म में प्रस्तुत न्या या वतार की कारिकाके दो व्याख्यामेदोंका उल्लेख किया गया है। एक मत यह रहा कि कारिकागत 'प्रमाण' पद अनुवाद है । और दूसरा यह कि वह पद विधेय है । प्रमाण लक्ष्म कार ने द्वितीयको ही ठीक समझा है । और शान्त्या चार्य ने प्रथम पक्षको ।-प्रमालक्ष्म पृ० ४। पृ० १४. पं० २. 'तादात्म्यात' लक्षण दो प्रकारका होता है-आत्मभूत और अनात्मभूत । प्रमाण और उसका लक्षण अत्यन्त भिन्न नहीं हैं । उन दोनोंका तादात्म्य है । अतएव यह लक्षण आत्मभूत है। इन दोनों का तादात्म्य होते हुए भी बौद्धों के मतसे एक प्रसिद्ध और दूसरा अप्रसिद्ध हो सकता है । क्यों कि जितना भी शाब्दिक व्यवहार है वह सांवृतिक है । अर्थात् विकल्पजन्य है और विकल्प बाह्य वस्तुकी अपेक्षा नहीं करता । अतएव बाह्य वस्तुकी दृष्टिसे दोनोंका तादात्म्य होते हुए भी किसीको वह प्रमाणरूपसे प्रसिद्ध हो सकता है और उसके लक्षणरूपसे अप्रसिद्ध होसकता है । - स्याद्वादर० पृ० ३०-३१ । न्या य बिन्दु टी का कारने जिस शंकाका समाधान ( न्यायबि० टी० पृ० १२) प्रत्यक्ष लक्षणके व्याख्याके समय किया है उसी शंकाका समाधान शान्त्या चार्य ने यहां प्रायः उन्हींके शब्दोंको लेकर किया है, किन्तु जैन दृष्टिसे इस प्रश्नका समाधान जो हो सकता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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