SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पृ० २१. पं० ७] . टिप्पणानि। १५५ पृ० २०. पं० २६ 'सुखदुःख धर्मकीर्तिने सुखादिको ज्ञानरूप सिद्ध किया है । उनका कहना है कि विज्ञानोत्पत्तिके जो कारण हैं वे ही सुखोत्पत्तिके भी हैं । अत एव सुख और ज्ञानमें मेद नहीं । शान्त्या चार्य ने भी उन्हींका अनुकरण करके और उन्हींके वचनका उद्धरण देकर सुखादिको ज्ञानात्मक कहा है । शान्त्या चार्य के इस कथनको द्रव्यार्षिक नयदृष्टिसे ही ठीक समझना चाहिए । चेतन आत्मासे अभिन्न ऐसे ज्ञान और सुखका चेतनत्वेन अमेद हो सकता है "एतेन शानादर्थान्तरभूतत्वात् सुखादीनामचेतनत्वमेवेति वदन्तोऽपाकृताः प्रत्येतव्याः, चेतनादात्मनोऽनन्तरत्वेन कथञ्चित् चेतनत्वसिद्धेः"अष्टस० पृ० ७८ । किन्तु पर्यायनयकी अपेक्षासे ज्ञान और सुख ऐसे दो अत्यन्त भिन्न पर्याय एक ही आत्माके हैं । अत एव ज्ञान और सुख का ऐकान्तिक तादाम्य नहीं । सुख आहादनाकार है और ज्ञान मेयबोधनरूप है - इस प्रकार दोनोंके खरूपका मेद स्पष्ट है । दोनोंके कारणोंका भी मेद स्पष्ट ही है । सुख होता है सद्वेद्य नामक अदृष्टके उदयसे और ज्ञान होता है ज्ञानावरणीयादिके क्षयोपशमादिसे । यह भी कोई नियम नहीं कि अभिन्न कारण जन्य होनेसे ज्ञान और सुख अभिन्न ही हो क्यों कि कुम्भादिके भङ्गसे होने वाले शब्द और कपालखण्डमें किसी भी प्रकारसे ऐक्य नहीं देखा जाता- अष्टस० पृ० ७८ । न्यायकु० पृ० १२९ । स्याद्वादर० पृ० १७८। - नै या यि क-वैशेषिकों ने भी सुख और ज्ञानके मेदको ही माना है और बौद्धों का खण्डन किया है। किन्तु वे जैनों की तरह उनको आत्मसम्बन्धी मानकर भी आस्मासे उनका अत्यन्त मेद ही मानते हैं । समवायके कारण ही आत्मा और उन दोनोंका सम्बन्ध होता है ऐसा वे मानते हैं । जैनों के मतसे आत्मा ही उपादान कारण है और वही ज्ञान और सुखरूपसे परिणत होता है अत एव ज्ञान और सुखका कथंचिद् मेद होने पर भी आत्मासे उन दोनोंका अत्यन्त भेद नहीं। सांख्यों ने सुखादि को प्रकृति का परिणाम माना है अत एव अचेतन मी । किन्तु जैन और बौद्ध समानरूपसे सुखादिको चैतन्यरूप ही सिद्ध करते हैं और खसंविदित मी-प्रमाणवा० २.२६८। तत्त्वसं० का० ३६ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० ४९ । अष्टस० पृ० ७८ । पृ० २०.५० २८ 'पूर्व' देखो पृ० १६। .. पृ० २०. पं० ३१ 'तदतदू' व्याख्या- “तदूपिणो विवक्षितकरूपवन्तोऽतदूपिण इतररूपवन्तो भाषा यथाक्रमं तपाद टैकरूपाखेतोः सामग्रीलक्षणाजाता अतवूपहेतुजाता विलक्षणसामग्रीजाता भवन्तीति तावत् स्थितम् । तत् तस्मादिमं न्यायमुलंन्य विज्ञानेन सहाभिन एको हेतुरिन्द्रियविषयमनस्कारादिसामग्रीलक्षणः तस्माद जातं मुखादिकं कसावलानं ? समानसामग्रीप्रसूतत्वात इयमपि शानं स्थानमा किश्चित्"मनो। . पृ० २१. पं० १. 'अविशेष' तुलना-"तस्याविशेषे बाह्यस्य भावनातारतम्यतः । तारतम्यं च बुद्धौ स्यात् न प्रीतिपरितापयो।" प्रमाणवा० २.२७०. । पृ० २१. पं० ७ 'मिनाभः' प्रमाणवा० २.२७९ । “इत्यन्तरलोकः"-प्रमाणवा० ० १. प्रमाणवा० २.२५१.। १. न्यायवा० पृ० ३६ । तात्पर्य पृ० १२३ । न्यायमं० पृ०७०। वैशे० १.१.६ । व्यो०पू०६२७॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy