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टिप्पणानि ।
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[ ४० २१. पं० ११
पृ० ५०२ । व्याख्या - सांख्यस्य तु सितदुःखादिर्भिन्नाकारोऽभिन्न इष्टः । बुद्धिवेदने तु अभिन्नामे विभिन्ने इष्टे चेत् । मेदाभेदौ किमाश्रयौ किंनिमित्तौ ते व्यवस्थापनीयौ ।" - मनो० । मूल पुस्तकमें नीचे जो पाठान्तर 'रभिन्नो' दिया है वही ठीक है अत एव उसे मूलमें ले लेना चाहिए ।
पृ० २१. पं० ११. 'स्वसंवेदनं' खसंवेदनकी चर्चा के लिए निम्न लिखित ग्रन्थ देखें - प्रमाणवा० २.४२३-५३१ । प्रमाणवा० अ० पृ० ४६६ । प्रकरणपं० पृ० ५१ । भामती१.१.१ । न्यायवि० का० १३ से । तत्त्वार्थश्लो० पृ० ४१, १२५, १६५ । अष्ट० पृ० ६४ | सन्मति० टी० पृ० ४७५ । प्रमेयक० पृ० १२१ । न्यायकु० पृ० १७६ । स्याद्वादर पृ० २१० । इस विषयमें दार्शनिक मतभेदोंके वर्णनके लिए देखो - प्रमाण ० भाषा० पृ० १३०,१३६ ।
पृ० २१. पं० १२. 'अथ प्रमाणात्' - यहाँ से प्रामाण्यका निश्चय स्वतः होता है कि परतः - इस चर्चाका उपक्रम शान्त्या चार्य ने किया है। इस विषयमें दार्शनिकोंके मतभेदोंके वर्णन के लिए देखो - प्रमाण० भाषा० पृ० १६ ।
प्रस्तुत चर्चा का प्रारम्भ मीमांसक के द्वारा परतः प्रामाण्यवादिओंका खण्डन करा कर किया गया है। बौद्ध संमत संवादकज्ञान या नैया यि का दि संगत कारणगुणज्ञान ये दोनों प्रवर्तक ज्ञानके प्रामाण्यके निश्चयमें असमर्थ हैं - इस बातकी स्थापना मीमांसक करता है ( ९१ - ९ ) । शान्त्या चार्य ने उत्तर दिया है कि ज्ञानके अबाधित होनेसे प्रामाण्य का निश्चय होता है (१०) । सिद्ध सेन ने प्रमाणको बाधविवर्जित कहा है- न्याया० १ । उसी पदका यह विवरण है ऐसा समझना चाहिए ।
फिर प्रश्न हुआ कि बाधकाभावका निश्वय मी कैसे होता है ? । जब बाध्यबाधकभाव ही संभव बाधकाभावका निश्चय कैसे होगा ? यदि वह न हो तो अबाधितत्वके कारण प्रामाण्यनिश्चय नहीं हो सकता ( पृ० २६. पं० १६ ) | यह पूर्वपक्ष (१११ - २४ ) बौद्ध का है क्यों कि उसे प्रामाण्यका नियामकतत्त्व अबाधितत्व नहीं किन्तु 'अविसंवादित्व इष्ट है । अत एव उसने अबाधितत्वके खण्डनके लिए बाध्यबाधकभावका ही खण्डन किया है ।
उत्तरपक्ष में (६२५) शान्त्या चार्य ने बाध्यबाधकभावके निराकरणको असंगत बता कर इस मूल प्रश्नको स्पष्ट किया है कि प्रमाणका नियामक तत्व क्या है- अविसंवाद या अबाधितत्व (६२६ ) । उन्होंने अविसंवादका खण्डन करके (६२७) अबाधितत्वको ही प्रमाणका लक्षण सिद्ध किया है ( ६२८) और उसका निश्चय कारणगुणकी पर्यालोचना के द्वारा स्थापित करके मीमांसक संमत खतः प्रामाण्य वादका खण्डन किया है ।
१. “एवं तर्हि अर्थक्रियामातेः अनालम्बनत्वेपि प्रामाण्यव्यवहार इति किं नेष्यते" प्रमाणवा० म० पृ० २५५ । निराकम्पनवाद सिद्ध करनेके लिए प्रज्ञाकर ने भ्रमका निरूपण किया है। उनका कहना है कि ज्ञानमें आकारमात्रका अनुभव होनेके कारण ही वह सालम्बन होगा नहीं। ऐसा मानने पर भ्रायाआन्तविभाग संभव नहीं । सालम्बन होने पर भी अर्थक्रियाप्राप्तिकृत प्रामाण्य यदि माना जाय तब अच्छा यही है कि ज्ञान साकम्बन न भी हो किन्तु यदि अर्थक्रियामाति हो तब प्रमाण माना जाय । अर्थक्रियाप्रति ही अविसंवाद है-प्रमाणवा० १.३ । इसी प्रसंगमें क्यातियोंका निरूपण जैसा कि हावा चार्य ने पूर्वपक्षमें किया है - (६११-२४) महाकर किया है-प्रमाणवा० अ० २५७॥
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