SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना । ११७ एक ही अर्थके विषय में ऐसे अनेक विरोधी निर्णय होनेपर क्या विप्रतिपत्तिका प्रसंग नहीं होगा ! ऐसा प्रश्न उठाकर अनेकान्तवादके आश्रयसे उन्होंने जो उत्तर दिया है उसीमेंसे विरोधके शमन या समन्वयका मार्ग निकल आता है। उनका कहना है कि एक ही लोकको महासामान्य सत् की अपेक्षासे एक; जीव और अजीव के भेदसे दो; द्रव्य, गुण और पर्यायके मेदसे तीन; चतुर्विध दर्शनका विषय होनेसे चार; पांच अस्तिकायकी अपेक्षासे पांच छः द्रव्योंकी अपेक्षा से छः कहा जाता है । जिस प्रकार एक ही लोकके विषयमें अपेक्षाभेदसे ऐसे नाना निर्णय होनेपर भी विवादको कोई स्थान नहीं उसी प्रकार नयाश्रित नाना अध्यवसायोंमें भी विवादको अवकाश नहीं है - "यथैता न विप्रतिपत्तयोऽथ चाध्यवसाय स्थानान्तराणि एतानि तद्वन्नयवादाः ।" १.३५ । धर्मास्तिकायादि किसी एक तस्वके बोधप्रकार मत्यादिके मेदसे भिन्न होते हैं । एक ही वस्तु प्रत्यक्षादि चार प्रमाणोंके द्वारा भिन्न भिन्न प्रकारसे जानी जाती है। इसमें यदि विवादको अनवकाश है तो नयवाद में भी विवाद नहीं हो सकता । ऐसा मी वाचकने प्रतिपादन किया है - (१.३५ ) वाचकके इस मन्तव्यकी तुलना न्यायभाष्यके निम्न मन्तव्यसे करना चाहिए । न्यायसूत्रगर्त - 'संख्यैकान्तासिद्धिः' ( ४.१.४१ ) की व्याख्या करते समय भाष्यकारने संख्यैकान्तों का निर्देश किया है और बताया है कि ये सभी संख्यायें सच हो सकती हैं, किसी एक संख्याका एकान्त युक्त नहीं' – “अथेमे संख्यैकान्ताः सर्वमेकं सदविशेषात् । सर्व द्वेधा नित्यानित्यमेवात् । सर्व श्रेधा ज्ञाता ज्ञानं ज्ञेयमिति । सर्व चतुर्धा प्रमाता प्रमाणं प्रमेयं प्रमितिरिति । एवं यथा संभवमन्येपि इति ।" न्यायभा० ४.१.४१. । वाचकके इस स्पष्टीकरणमें कई नये वादोंका बीज है - जैसे ज्ञानभेदसे अर्थभेद है या नहीं ! प्रमाण संप्लव मानना योग्य है या विप्लव ? धर्मभेदसे धर्मिभेद है या नहीं ? सुनय और दुर्णयका भेद, इत्यादि । इन वादोंके विषयमें बादके जैनदार्शनिकोंने विस्तारसे चर्चा की है। वाचकके कई मन्तव्य ऐसे हैं जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों संप्रदायोंके अनुकूल नहीं । उनकी चर्चा पं० श्री सुखलालजीने तत्त्वार्थसूत्र के परिचयमें की है अतएव उस विषय में यहाँ विस्तार करना अनावश्यक है । उन्ही मन्तव्योंके आधारपर वाचककी परम्पराका निर्णय होता है कि वे यापनीय थे । उन मन्तव्योंमें दार्शनिक दृष्टिसे कोई महत्वका नहीं है। अतएव उनका वर्णन करना यहाँ प्रस्तुत भी नहीं है। (ब) आ० कुन्दकुन्दकी जैन दर्शनको देन । प्रास्ताविक - वा० उमाखातिने जैन आगमिक तत्वोंका निरूपण संस्कृत भाषामें सर्वप्रथम किया है तो आ० कुन्दकुन्दने आगमिक पदार्थोंकी दार्शनिक दृष्टिसे तार्किक चर्चा प्राकृत भाषामें सर्व प्रथम १ "ते खविमे संख्यैकान्ता यदि विशेषकारिवस्य अर्थभेद विस्तारस्य प्रत्याख्यानेन वर्तन्ते, प्रत्यक्षानु मानागमविरोधाम्मिया वादा भवन्ति । अथाम्यनुज्ञानेन वर्तन्ते समानधर्मकारितोऽर्थसंग्रहो विशेषकारि• अर्थमेव इति एवं एकान्तस्वं जहतीति ।” म्यायभा० ४.१.४३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy