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________________ ११६ नई विचारणा। .६२ नयोंके लक्षण । ___ अनुयोगद्वारसूत्रमें नयविवेचन दो स्थानपर आया है । अनुयोगका प्रथम मूल द्वार उपक्रम है। उसके प्रभेद रूपसे नय प्रमाणका विवेचन किया गया है तथा अनुयोगके चतुर्थ मूलद्वार नयमें भी नयवर्णन है । नय प्रमाण वर्णन तीन दृष्टान्तों द्वारा किया गया है-प्रस्थक, वसति' और प्रदेश (अनुयोग सू० १४८)। किन्तु यहां नयोंका लक्षण नहीं किया गया । मूल नयद्वारके प्रसंगमें सूत्रकारने नयोंका लक्षण किया है । सामान्यनयका नहीं। उन लक्षणोंमें भी अधिकांश नयोंके लक्षण निरुक्तिका आश्रय लेकर किये गये हैं। सूत्रकारने सूत्रोंकी रचना गघमें की है किन्तु नयोंके लक्षण गाथामें दिये हैं। प्रतीत होता है कि अनुयोगसे भी प्राचीन किसी आचार्यने नय लक्षणकी गाथाओंकी रचना की होगी । जिनका संग्रह अनुयोगके कर्ताने किया है। वाचकने नय का पदार्थनिरूपण निरुक्ति और पर्यायका आश्रय लेकर किया है - "जीवादीन पदार्थान् नयन्ति प्राप्नुवन्ति कारयन्ति साधयन्ति निर्वतयन्ति निर्भासयन्ति उपलम्भयन्ति व्यञ्जयन्ति इति नयाः।” (१.३५) अर्थात् जीवादि पदार्थोंका जो बोध करावें वे नय हैं। वाचकने आगमिक उक्त तीन दृष्टांतोंको छोडकर घटके दृष्टान्तसे प्रत्येक नयका खरूप स्पष्ट किया है । इतनाही नहीं बल्कि आगममें जो नाना पदार्थोंमें नयावतारणा की गई है उसमें प्रवेश करानेकी दृष्टिसे जीव, नोजीव, अजीव, नोअजीव इन , शब्दोंका प्रत्येक नयकी दृष्टिमें क्या अर्थ है तथा किस नयकी दृष्टिसे कितने ज्ञान अज्ञान होते हैं इसका भी निरूपण किया है। ३ नई विचारणा। नयोंके लक्षणमें अधिक स्पष्टता और विकास तत्वार्थमें है यह तो अनुयोग और तस्वार्थगत नयोंके लक्षणोंकी तुलना करनेवालेसे छिपा नहीं रहता। किन्तु वाचकने नयके विषयमें जो विशेष विचार उपस्थित किया जो संभवतः आगमकालमें नहीं हुआ था, वह तो यह है कि क्या नय वस्तुतः किसी एक तस्वके विषयमें तत्रान्तरीयोंके नाना मतवाद हैं या जैनाचायोंके ही पारस्परिक मतमेद को व्यक्त करते हैं। इस प्रश्नके उत्तरसे ही नयका खरूप वस्तुतः क्या है, या वाचकके समयपर्यन्तमें नयविचारकी व्याप्ति कहां तक थी इसका पता लगता है। वाचकने कहा है कि नयवाद यह तन्त्रान्तरीयोंका वाद नहीं है और न जैनाचार्योंका पारस्परिक मतभेद । किन्तु वह तो "शेयस्य तु अर्थस्थाध्यवसायान्तराणि एतानि ।” (१. ३५) है । अर्थात् ज्ञेय पदार्थके नाना अध्यवसाय है। अर्थात् एक ही अर्थक विषयमें भिन्न भिन्न अपेक्षाओंसे होनेवाले नाना प्रकारके निर्णय हैं। ऐसे नाना निर्णय नयभेदसे किस प्रकार होते हैं इसे दृष्टान्तसे वाचकने स्पष्ट किया है । प्रो. चक्रवर्तीने स्याद्वादमंजरीगत (का. २८) निलयन retaका मर्य किया है-House-buil. ding (पंचास्तिकायप्रस्तावना पू. ५५) किन्तु उसका 'वसति' से मतलब है । और उसका विवरण मो अनुयोगमें है उससे स्पष्ट है कि प्रो. चक्रवर्तीका. अर्थ प्रान्त है। "किमेते तत्रावरीया वादिन माहोखिद् खतना एवं चोदकपक्षप्राहिणो मतिमेदेन विप्रधाविता इति।"१.१५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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