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________________ प्रस्तावना । [३] नयनिरूपण । प्रास्ताविक वाचक उमास्वाति ने कहा है कि नामादि निक्षेपोंसे न्यस्त जीवादि तत्त्वोंका अधिगम प्रमाण और नयसे करना चाहिए'। इस प्रकार हम देखते हैं कि निक्षेप, प्रमाण और नय मुख्यतः इन तीनों का उपयोग तश्वके अधिगममें है । यही कारण है कि सिद्धसेनादि सभी दार्शनिकोंने उपायतश्वके निरूपणमें प्रमाण, नय और निक्षेपका विचार किया है । - ११५ अनुयोगके मूलद्वार उपक्रम, निक्षेप अनुगम और नय ये चार हैं। इनमेंसे दार्शनिक युगमें प्रमाण, नय और निक्षेप, ही का विवेचन मिलता है। नय और निक्षेपने तो अनुयोगके मूल द्वारमें स्थान पाया है पर प्रमाण स्वतन्त्र द्वार न होकर उपक्रम द्वारके प्रभेद रूपसे आया है' । अनुयोगद्वारा मतसे भावप्रमाण तीन प्रकारका है - गुणप्रमाण ( प्रत्यक्षादि ), नयप्रमाण और संख्याप्रमाण' । अतएव तस्वतः देखा जाय तो नय और प्रमाणकी प्रकृति एकही है अर्थात् प्रमाण और नयका तात्विक भेद नहीं है। दोनों वस्तुके अधिगमके उपाय हैं । किन्तु प्रमाण अखण्ड वस्तुके अधिगमका उपाय है और नय वस्त्वंशके अधिगमका । इसी भेदको लक्ष्य करके जैनशास्त्रोंमें प्रमाणसे नयका पार्थक्य मानकर दोनों का स्वतन्त्र विवेचन किया जाता है'। यही कारण है कि वाचकने मी 'प्रमाणनयैरधिगमः' (१.६ ) इस सूत्र में प्रमाणसे नयका पृथगुपादान किया है । ११ नयसंख्या । तत्त्वार्थसूत्रके स्वोपज्ञभाष्यसंमत और तदनुसारी टीका संमत पाठके आधार पर यह सिद्ध है। कि वाचकने पांच मूल नय माने हैं "नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः” (१. ३४)। यह ठीक है कि आगममें स्पष्टरूपसे पांच नहीं किन्तु सात मूल नयोंका उल्लेख है । किन्तु अनुयोगमें शब्द, समभिरूढ और एवंभूतकी सामान्य संज्ञा शब्दनय दी गई है - " तिण्डं सहनयाणं" (सू० १४८, १५१ ) । अत एव वाचकने अंतिम तीनों को शब्द सामान्य के अन्तर्गत करके मूल नयोंकी पांच संख्या बतलाई है सो अनागमिक नहीं । दार्शनिकोंने जो नयोंके अर्थनय और शब्दनये ऐसे विभाग किये हैं उसका मूल मी इस तरहसे आगम जितना पुराना है क्योंकि आगममें जब अंतिम तीनोंको शब्द नय कहा तब अर्थात् सिद्ध हो जाता है कि प्रारंभके चार अर्थनय हैं । Jain Education International वाचकने शब्दके तीन भेद किये हैं- सांप्रत, समभिरूढ और एवंभूत । प्रतीत होता है किं शब्दसामान्यसे विशेष शब्द नयको पृथक् करनेके लिये वाचकने उसका सार्थक नाम सांप्रत रखा है । १ " एषां च जीवादिवत्वानां यथोद्दिष्टानां नामादिभिर्म्यस्ानां प्रमाणनयैर्विस्तराधिगमो भवति ।" तवार्थभा० १.६ । २ अनुयोगद्वार सू० ५९ । ३ अनुयोगद्वार सू० ७० । ४ अनुयोगद्वार सू० १४६ । ५ तत्वार्थ भा० डीका १.६ । ६ दिगम्बर पाठके अनुसार सूत्र ऐसा है-"नैगम संग्रह व्यवहार जैसूत्रशब्दसमभिरूडैवम्भूता नयाः ।" ७ अनुयोगद्वार सू० १५६ । स्थानांग सू० ५५२ । ८ प्रमाणन० ७.४४, ४५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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