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________________ आहरणतदेश। उपालम्भका दार्शनिकोंमें सामान्य अर्थ तो यह किया जाता है कि दूसरेके पक्षमें दूषणका उद्भावन करना' किन्तु चरकने वादपदोंमें मी उपालम्भ को खतरूपसे गिनाया है और कहा है कि "उपालम्भो नाम हेतोदोषवचनम् ।" (५९.) अर्थात चरकके अनुसार हेत्वाभासोंका उद्भावन उपालम्भ है । न्यायसूत्रका हेत्वाभासरूप निग्रहस्थान (५.२.२५) ही चरकका उपालम्भ है । स्वयं चरकने मी अहेतु (५७) नामक एक खतब वादपद रखा है । अहेतुका उद्रावन ही उपालम्भ है। तर्कशान (पृ. १०) और उपायहृदयमें भी (पृ० १४) हेस्वाभासका वर्णन भाया है। विशेषता यह है कि उपायहदयमें हेत्वाभासका अर्थ विस्तृत है। छल और जातिका भी समावेश हेत्वाभासमें स्पष्टरूपसे किया है । (३) पृच्छा-प्रश्न करनेको पृच्छा कहते हैं - अर्थात् उत्तरोत्तर प्रश्न करके परमतको असिद्ध और स्वमतको सिद्ध करना पृच्छा है जैसे चार्वाकसे प्रश्न करके जीवसिद्धि करना। प्रश्न-आत्मा क्यों नहीं है! उत्तर-क्यों कि परोक्ष है। प्रश्न-यदि परोक्ष होनेसे नहीं तो तुम्हारा आत्मनिषेधक कुविज्ञान भी दूसरों को परोक्ष है अत एव नहीं है । तब जीवनिषेध कैसे होगा! इस प्रश्नमें ही आत्मसिद्धि निहित है । और चार्वाकके उत्तरको खीकार करके ही यह प्रभ किया गया है। इस पृच्छाकी तुलना घरकगत अनुयोगसे करना चाहिए । अनुयोगको चरकने प्रम और प्रश्नैकदेश कहा है- चरक विमान० ८.१२ उपायहृदयमें दूषण गिनाते हुए प्रश्नबाहुल्यमुत्तराल्पता तथा प्रश्नास्पतोत्तरवाहुल्य ऐसे दो दूषण मी बताये हैं। इस पृच्छाकी तुलना उन दो दूषणोंसे की जा सकती है । प्रश्नवाहुल्यमुत्तराल्पताका स्पष्टीकरण इस प्रकार है "मारमा नित्योऽनैन्द्रियकस्वात् यथाकाशोऽनैन्द्रियकत्यानित्य इति भवतः स्थापना । मथ यदनैम्द्रियकं तनावश्यं नित्यम् । तत्कथं सिद्धम्" उपाय० पू० २८ । प्रश्नाल्पतोत्तरबाहुल्यका खरूप ऐसा है"मात्मा निस्योऽनैन्द्रियकस्वादिति भवत्स्थापना । अनैन्द्रियकस्य वैविध्यम् । यथा परमाणवोऽनुपलभ्या अनित्या' । आकाशस्त्विन्द्रियानुपलभ्यो नित्यश्च । कथं भवतोच्यते यदनुपलभ्यत्वानित्य इति।" उपाय० पृ०२८ । उपायहृदयने प्रश्नके अज्ञान को भी एक खतन निग्रहस्थान माना है । और प्रश्नका त्रैविष्य प्रतिपादित किया है "ननु प्रमाः कतिविधाः ? उच्यते । त्रिविधाः । यथा वचमसमा, अर्थसमः, हेतुसमध । यदि वादिनस्तैसिभिः प्रश्नोत्तराणि न कुर्वन्ति तद्विभ्रान्तम् ।" पृ०१८ । (४) निश्रावचन-अन्यके बहानेसे अन्यको उपदेश देना निश्रावचन है। उपदेश तो देना खशिष्यको किन्तु अपेक्षा यह रखना कि उससे दूसरा प्रतिबुद्ध हो जाय । जैसे अपने न्यायसूत्र १.२.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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